जन्मदिवस पर आप सबके आशीर्वाद ,स्नेह ,शुभकामनाओं के लिए हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ ,अभिभूत हूँ आप सबसे मिले स्नेह से। सदैव ये प्रयास रहेगा कि अपनी लेखनी ,कर्म के द्वारा आप सबकी उम्मीदों पर खरा उतरता रहूँ ,माँ भारती की सेवा करता रहूँ। मन ,वचन ,कर्म से किसी का अहित न करूँ ऐसा ताउम्र प्रयास रहेगा। वन्दे मातरंम् ! जय माँ भारती !!
Monday, November 17, 2014
Saturday, November 1, 2014
अत्यन्त हर्ष का विषय है कि हमारा नया मीडिया मंच अपने दो पड़ावों को सफलतापूर्वक पार करते हुए अपने तीसरे पड़ाव की ओर अग्रसर है ,हमारा अगला पड़ाव गोरखपुर की पावन जमीन है भाई शिवानन्द जी ,आदरणीय डॉ सौरभ मालवीय जी ,पृथक जी आदि के प्रयासों से हम नया मीडिया मंच को उत्तरोत्तर सफल व सशक्त बनाने की दिशा में अग्रसर हैं। कल शिवा भाई से वार्ता के बाद आज ये सूचना मिली है की हमारा अगला पड़ाव 'पटना' होगा कार्यक्रम का प्रस्तावित विषय है 'नया मीडिया एवं वेब पुलिसिंग' कार्यक्रम आयोजित करने के लिए आमन्त्रण इस बार वहां के अपर पुलिस महानिदेशक महोदय की तरफ से है। आप सबसे भी सादर अनुरोध है की नया मीडिया मंच से जुड़ें ,गोरखपुर में आयोजित होने वाली संगोष्ठी में जुड़ें और हमारे इरादों को मजबूती प्रदान करें।
सादर।
डॉ.धीरेन्द्र नाथ मिश्र 'धीरज'
Tuesday, August 12, 2014
मात्र दो प्रज्ञाचक्षु युक्त व्यक्ति ही सदैव एक -दूसरे से अन्तर्संवाद स्थापित करते हुए साथ रह सकते हैं ,इनमे एक नए तरह के प्रेम का उदय होता है जिसे आप मित्रता कह सकते हैं। इस तथाकथित प्रेम में मित्रता अधिक गरिमामयी होती है ,इस प्रेम में घृणा ,संघर्ष ,लड़ना ,झगड़ना सब समाप्त हो जाता है ;अधिकार और आत्मनियंत्रण की कामना बलवती हो जाती है। 'मित्रता शुद्धतम प्रेम है।' इसमें जो कुछ भी असार ,अर्थहीन होता है पीछे छूट जाता है केवल सारभूत और सुवास ही शेष बचता है।
मित्रता ,प्रेम की ही सुवास है। स्मरण रहे जब तक आप अपने जीवनसाथी के मित्र नही बन जाते कभी भी शांति और समरसता का भान नही कर पाएंगे।
मित्रता ,प्रेम की ही सुवास है। स्मरण रहे जब तक आप अपने जीवनसाथी के मित्र नही बन जाते कभी भी शांति और समरसता का भान नही कर पाएंगे।
Sunday, August 3, 2014
पता नही किस उद्वेग और आक्रोश से इस काव्य का सृजन हुआ है ये तो नही बता सकता परन्तु इतना जरूर है कि थोड़ा भी सहृदय व्यक्ति इस काव्यकृति से अंतर्मन तक हिल जायेगा हम जैसे न जाने कितनों की आवाज इस काव्य में सुनाई दे रही है ,आप जिसे मिल गए उसे सोने /चांदी की कोई जरुरत ही नही फिर भी नतशीश नमन करता हूँ मैं मातृसत्ता को जिसने आपकी सहचरी बनकर आपके सभी निर्णयों में न केवल स्वीकारोक्ति दी वरन मनसा ,वाचा ,कर्मणा आपकी सहभागी बनी रहीं ,आप जैसे 'ज़मीर' कई युगों में एक पैदा होते हैं और जिसका जीवन ही स्वयं का नही है औरों के लिए है उसका जीना है तो जीना है इस संसार में।
मुसीबत की क्या बिसात आपके सामने आये ,
मुश्किल में इतना तेज ही नही की टिक पाये ,
मानता हूँ कि जो छपते हैं वही बिकते हैं ज़माने में ,
कलम भी सोचती है कि ज़मीर पे क्या लिख पाये ,
भारत माँ भी नाज़ करती है अपने ऐसे सपूत पर ,
वो भी चाहती है कि कहीं कोई तो ज़मीर आये।
....
मुसीबत की क्या बिसात आपके सामने आये ,
मुश्किल में इतना तेज ही नही की टिक पाये ,
मानता हूँ कि जो छपते हैं वही बिकते हैं ज़माने में ,
कलम भी सोचती है कि ज़मीर पे क्या लिख पाये ,
भारत माँ भी नाज़ करती है अपने ऐसे सपूत पर ,
वो भी चाहती है कि कहीं कोई तो ज़मीर आये।
....
Saturday, August 2, 2014
वो कहते हैं न परमादरणीय कि ,
हर चश्मे का अलग असर है ,
सबकी अपनी अलग नजर है ,
दृश्य न सुन्दर और असुन्दर,
यह तो दृष्टा पर निर्भर है ,
करता 'धीरज' कहाँ बसर है ,
किसको गुनता कहाँ खबर है ,
इस 'ज़मीर' का अनुचर बनकर ,
मिलती नित ही नयी डगर है ,
नाउम्मीदी कभी न आई ,
सीख सका न मैं चतुराई ,
शब्दसिंधु की महिमा भी तो ,
इस 'ज़मीर' ने ही सिखलाई ,
जिसको तकते स्वयं शिखर हैं ,
जिसका तन -मन ही ईश्वर है ,
स्नेह ,नम्रता भी कृतकृत्य है ,
कभी शून्य पर आज शिखर है ,
सादर समर्पित
Thursday, July 31, 2014
Monday, July 21, 2014
स्त्री
स्त्री क्या है ?
क्यों है ?
कैसे है ?
क्यों नही होता स्त्री का अपना कोई घर ?
क्यों नही होता स्त्री का अपना वंशज ?
क्यों नही होती स्त्री अपनी खुद की मालिक ?
क्यों उसके उम्र के हर पड़ाव होते है औरों के अधीन ?
क्यों महीने के हरेक दिन वो मन्दिर नही जा सकती ?
क्यों सबको खिलाकर तृप्त किये बिना वो नही खा सकती ?
क्यों वो अपनी मर्जी से सो नही सकती ?
क्यों कभी -२ चाहकर भी वो रो नही सकती ?
क्यों चहारदीवारी की सीमायें केवल इसी के लिए बनी ?
क्यों हमेशा यही मिलती है लावारिश रक्त में सनी ?
क्यों सारे व्रत ,सारे उपवास इसी पर थोप दिए गए ?
क्यों सुख के सारे पल इससे छीनकर पुरुष को दिए गए ?
सारी उम्र ये मिथक रखने के बावजूद कि उसका पति उसका देवता है
एक पति परमेश्वर क्या ईश्वरत्व दिखाता है उसे ?
जब किसी के बाप दादा मरोड़ते है अपनी मूँछे बेटे के जन्म पर
तो क्यों भूल जाते हैं कि इन सबके पीछे सिर्फ तुम हो ?
जीवन की धधकती आग में निरन्तर जलती हो तुम
और अन्ततोगत्वा तुम्हारे जीवन की शाम हो जाती है
क्यों भूल जाते हैं लोग कि अपनी आधी उम्र तक
तुम्हे केवल तुम्हारे स्त्री होने का दंश भोगना पड़ता है
घर की इज्जत बचाने के लिए जो स्त्री अपना वजूद भूल जाती है
उसी स्त्री की इज्जत के साथ सड़कों पे खेलते है वहशी दरिन्दे
सबका दर्द सुने समझे और आत्मसात करे ,तसल्ली भी दे ,
लेकिन उसका दर्द सुनने ,समझने और तसल्ली देने कौन जाता है
जन्म से लेकर मरण तक कोई हमराह नही रहता
फिर भी सबकी राहों में फूल बिछाती है ये औरत
सभी रिश्तों को निभाते -निभाते एक दिन खुद ही निभ जाती है
चली जाती है उस अनन्त में जहाँ से कोई वापस नही आता
अपनी माँ ,बहन ,बेटियों ,दोस्तों के साथ हम ये कब तक होने देंगे ?
कब तक होने देंगे ये सब ? आखिर कब तक ?
प्रतिक्रिया एवं सुझाव का आकांक्षी
डॉ. धीरेन्द्र नाथ मिश्र 'धीरज'
स्वतन्त्र पत्रकार
स्त्री क्या है ?
क्यों है ?
कैसे है ?
क्यों नही होता स्त्री का अपना कोई घर ?
क्यों नही होता स्त्री का अपना वंशज ?
क्यों नही होती स्त्री अपनी खुद की मालिक ?
क्यों उसके उम्र के हर पड़ाव होते है औरों के अधीन ?
क्यों महीने के हरेक दिन वो मन्दिर नही जा सकती ?
क्यों सबको खिलाकर तृप्त किये बिना वो नही खा सकती ?
क्यों वो अपनी मर्जी से सो नही सकती ?
क्यों कभी -२ चाहकर भी वो रो नही सकती ?
क्यों चहारदीवारी की सीमायें केवल इसी के लिए बनी ?
क्यों हमेशा यही मिलती है लावारिश रक्त में सनी ?
क्यों सारे व्रत ,सारे उपवास इसी पर थोप दिए गए ?
क्यों सुख के सारे पल इससे छीनकर पुरुष को दिए गए ?
सारी उम्र ये मिथक रखने के बावजूद कि उसका पति उसका देवता है
एक पति परमेश्वर क्या ईश्वरत्व दिखाता है उसे ?
जब किसी के बाप दादा मरोड़ते है अपनी मूँछे बेटे के जन्म पर
तो क्यों भूल जाते हैं कि इन सबके पीछे सिर्फ तुम हो ?
जीवन की धधकती आग में निरन्तर जलती हो तुम
और अन्ततोगत्वा तुम्हारे जीवन की शाम हो जाती है
क्यों भूल जाते हैं लोग कि अपनी आधी उम्र तक
तुम्हे केवल तुम्हारे स्त्री होने का दंश भोगना पड़ता है
घर की इज्जत बचाने के लिए जो स्त्री अपना वजूद भूल जाती है
उसी स्त्री की इज्जत के साथ सड़कों पे खेलते है वहशी दरिन्दे
सबका दर्द सुने समझे और आत्मसात करे ,तसल्ली भी दे ,
लेकिन उसका दर्द सुनने ,समझने और तसल्ली देने कौन जाता है
जन्म से लेकर मरण तक कोई हमराह नही रहता
फिर भी सबकी राहों में फूल बिछाती है ये औरत
सभी रिश्तों को निभाते -निभाते एक दिन खुद ही निभ जाती है
चली जाती है उस अनन्त में जहाँ से कोई वापस नही आता
अपनी माँ ,बहन ,बेटियों ,दोस्तों के साथ हम ये कब तक होने देंगे ?
कब तक होने देंगे ये सब ? आखिर कब तक ?
प्रतिक्रिया एवं सुझाव का आकांक्षी
डॉ. धीरेन्द्र नाथ मिश्र 'धीरज'
स्वतन्त्र पत्रकार
परमादरणीयद्वय को सादर प्रणाम ! क्षमा के विषय में यूँ तो बहुत कुछ लिखा जा चूका है शास्त्रों में जैसे -क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास हो…मेरी समझ में क्षमा से विरक्ति और क्रोधादि समय -समय पर अपरिहार्य हो जाते हैं। उदाहरण के लिए एक ऋषि के पास मिलने के लिए उनके छोटे भाई गए जो खुद भी ऋषि थे ,तत्समय अग्रज ऋषि कहीं गए हुए थे ;छोटे भाई को बड़ी जोर से भूख लगी थी उन्होंने देखा की बड़े भाई कि कुटिया आस -पास वृक्षों में फल पके हुए हैं उन्होंने एक आम तोडा और खाने लगे तभी उनके अग्रज वहां आ पहुंचे उन्होंने उनके हाँथ में आम देखा तो पूँछा छोटे भाई ने बता सारी बात बता दी। अग्रज ऋषि ने कहा कि 'बिना पूछे किसी की भी वस्तु लेना चोरी है अतः आप राजा के पास जाओ और इसके लिए दण्ड माँगो। छोटे ऋषि राजा के पास गए राजा उन्हें दण्डित करने को तैयार न हो रहे थे परन्तु उनके हठ के बाद वे मान गए। उस समय चोरी का दण्ड था दोनों हाँथ काट देना निष्कर्षतः उनके दोनों हाँथ काट दिए गए वे फिर अपने अग्रज की कुटिया में आये। बड़े ऋषि बहुत खुश हुए और उन्हें गले से लगा लिया ;फिर दोनों भाई संध्या वन्दन हेतु नदी स्नान को गए जहाँ स्नान के उपरान्त जब छोटे ऋषि ने अपने हाँथ अर्घ्य के लिए उठाये तो वे पूरे हो गए ;आश्चर्यचकित होकर उन्होंने बड़े भाई से इसका कारण पूँछा कि अगर मेरे हाँथ उगा ही देने थे तो आपने मुझे राजा के पास क्यों भेजा ? तो उन्होंने बताया कि चोरी का यथोचित दण्ड राजा के ही अधिकार क्षेत्र में होता है अतः मैंने तुम्हे वहाँ भेजा। अगर मैं तुम्हे क्षमा कर देता तो यह न्यायोचित नही होता। इससे हमें यह सीख मिलती है कि जहाँ दण्ड आवश्यक हो वहां क्षमा से कार्य नही हो सकता।
Friday, July 18, 2014
Sunday, July 13, 2014
आज रमई काका स्मृतिपटल पर आ गए ,आप सब भी आनन्द लें।
हम गयन याक दिन लखनउवै, कक्कू संजोगु अइस परिगा
पहिलेहे पहिल हम सहरु दीख, सो कहूँ - कहूँ ध्वाखा होइगा
जब गएँ नुमाइस द्याखै हम, जंह कक्कू भारी रहै भीर
दुई तोला चारि रुपइया कै, हम बेसहा सोने कै जंजीर
लखि भईं घरैतिन गलगल बहु, मुल चारि दिनन मा रंग बदला
उन कहा कि पीतरि लै आयौ, हम कहा बड़ा ध्वाखा होइगा
म्वाछन का कीन्हें सफाचट्ट, मुंह पौडर औ सिर केस बड़े
तहमद पहिरे कम्बल ओढ़े, बाबू जी याकै रहैं खड़े
हम कहा मेम साहेब सलाम, उई बोले चुप बे डैमफूल
'मैं मेम नहीं हूँ साहेब हूँ ', हम कहा फिरिउ ध्वाखा होइगा
हम गयन अमीनाबादै जब, कुछ कपड़ा लेय बजाजा मा
माटी कै सुघर महरिया असि, जहं खड़ी रहै दरवाजा मा
समझा दूकान कै यह मलकिन सो भाव ताव पूछै लागेन
याकै बोले यह मूरति है, हम कहा बड़ा ध्वाखा होइगा
धँसि गयन दुकानैं दीख जहाँ, मेहरेऊ याकै रहैं खड़ी
मुंहु पौडर पोते उजर - उजर, औ पहिरे सारी सुघर बड़ी
हम जाना मूरति माटी कै, सो सारी पर जब हाथ धरा
उइ झझकि भकुरि खउख्वाय उठीं, हम कहा फिरिव ध्वाखा होइगा
पहिलेहे पहिल हम सहरु दीख, सो कहूँ - कहूँ ध्वाखा होइगा
जब गएँ नुमाइस द्याखै हम, जंह कक्कू भारी रहै भीर
दुई तोला चारि रुपइया कै, हम बेसहा सोने कै जंजीर
लखि भईं घरैतिन गलगल बहु, मुल चारि दिनन मा रंग बदला
उन कहा कि पीतरि लै आयौ, हम कहा बड़ा ध्वाखा होइगा
म्वाछन का कीन्हें सफाचट्ट, मुंह पौडर औ सिर केस बड़े
तहमद पहिरे कम्बल ओढ़े, बाबू जी याकै रहैं खड़े
हम कहा मेम साहेब सलाम, उई बोले चुप बे डैमफूल
'मैं मेम नहीं हूँ साहेब हूँ ', हम कहा फिरिउ ध्वाखा होइगा
हम गयन अमीनाबादै जब, कुछ कपड़ा लेय बजाजा मा
माटी कै सुघर महरिया असि, जहं खड़ी रहै दरवाजा मा
समझा दूकान कै यह मलकिन सो भाव ताव पूछै लागेन
याकै बोले यह मूरति है, हम कहा बड़ा ध्वाखा होइगा
धँसि गयन दुकानैं दीख जहाँ, मेहरेऊ याकै रहैं खड़ी
मुंहु पौडर पोते उजर - उजर, औ पहिरे सारी सुघर बड़ी
हम जाना मूरति माटी कै, सो सारी पर जब हाथ धरा
उइ झझकि भकुरि खउख्वाय उठीं, हम कहा फिरिव ध्वाखा होइगा
Saturday, July 12, 2014
आज गुरुपूर्णिमा के पावन सुअवसर पर समस्त गुरुजनों का मैं हार्दिक वन्दन ,अभिनन्दन और शत -शत नमन करता हूँ। माता -पिता के बाद जिनसे जीवन के तौर तरीकों को सीखा ऐसे समस्त गुरुओं का मैं नमन करता हूँ, नाम लेकर मैं किसी की भी महत्ता कम नही कर सकता। बड़े -छोटे ,जलचर ,नभचर ,स्थलचर जिनसे भी मैं कुछ सीख सका या सीखने की प्रक्रिया में हूँ सबका मैं हृदय से आभारी हूँ। 'मुखपुस्तक' दुनिया में भी समस्त आदरणीयों एवं कनिष्ठों का भी मैं शत-शत वंदन ,अभिनन्दन और नमन करता हूँ।
गुरुपूर्णिमा की कोटिशः शुभकामनाएं
गुरुपूर्णिमा की कोटिशः शुभकामनाएं
Sunday, June 29, 2014
इस संसार में मोह की शक्ति कितनी अपार है ? अग्नि की दाहशक्ति को न जानता हुआ पतंग दीपक में जा पड़े ,मछली अज्ञानवश कँटिये में लगे मांस को खा लेवे ,परन्तु हम (मनुष्य ) जानते हुए भी अनेक विपत्ति के फन्दों से व्याप्त विषयादि का परित्याग नही करते। आखिर विधाता की सर्वोत्तम कृति होने के बावज़ूद हम क्यूँ चेतनाशून्य हो जाते हैं ?
Friday, June 27, 2014
हर युग अपना नया विचार पैदा करता है जैसे गाँधी युग ,नेहरू युग ,जेपी युग,अन्ना युग आदि -आदि ;युग चला जाता है और विचार स्थापित हो जाता है ,आगे बढ़ता रहता है जब बोझिल होता है तो समाप्तप्राय भी होने लगता है। सबके विचारों के अपने तर्क हैं और आधार भी ;यहां धातव्य यह है कि कुछ विचार मिलते-जुलते और एक जैसे होते हैं जैसे देश की ज्वलंत समस्याओं पर निराकरण सम्बन्धी विचार। मेरे जीवनकाल में अन्ना आन्दोलन जैसा एकमत विचार नही दृष्टिगत हुआ ,आज भी हममे से कई सुधारों का ज्वालामुखी अन्दर लिए बैठे हैं पर सबसे बड़ी समस्या इस देश में है शुरुवात की ,आगे चलने की ; यहीं से हम मात खा जाते हैं और छोड़ देते हैं सोचना ,जैसा चल रहा है चलने दो। कभी बहुत वैचारिक ऊहापोह हुआ तो कुछ लिख दिया ,किसी से कह दिया अन्यथा मूकदर्शन ! आखिर इसका समाधान कब और कैसे होगा ?
Thursday, June 26, 2014
क्षणिक जीवन का जीवन्त उल्लेख कर आपने निःशब्द कर दिया ,एक- एक लाईन अनेकों अर्थ समेटे हुए है ,किस वाक्य की समीक्षा करूँ और किसे छोड़ूँ ? अनुकरणीय और बेहद उम्दा सन्देश देती काव्यसुधा ! सदैव प्रार्थना है कि ऐसे ही चरणचिन्तकानुगामी के मानसमण्डल को अपने काव्यसिञ्चन से सिञ्चित कर अपनी काव्यात्मकता वीथी -वीथी में प्रतानित करें।
शायद इसीलिये फ़कीर के विषय में कहते हैं कि ;
मन मारै तन बस करै साधै सकल शरीर ,
फ़िकरि फारि कफ़नी करै ताको नाम फ़क़ीर।
शायद इसीलिये फ़कीर के विषय में कहते हैं कि ;
मन मारै तन बस करै साधै सकल शरीर ,
फ़िकरि फारि कफ़नी करै ताको नाम फ़क़ीर।
तुझसे मैं तब भी पूछता था और आज भी ,
क्यों नहीं आया मुखौटे में जीना तुम्हे ?
क्यों अपनी शर्तों पे जीते रहे तुम ?
क्यों खुशी देकर गरल पीते रहे तुम ?
क्यों घर में ही विद्रोही बन गए ?
तुम गलत नहीं हो इस पर अड़ गए ,
सिद्धान्तों पे चलकर क्या पाया तुमने ?
लोगों ने तुम्हारा प्रयोग किया और चलते बने ,
क्यों नहीं सोचा कि तुम्हारी भी अपनी ज़िन्दगी है ?
दूसरों के लिए जीना हमेशा सही नही होता ,
कभी स्वयं से स्नेह करके देखो ,
ज़िन्दगी कैसी लगती है ?
कैसे खुशनुमा हो जाता है ?
इस धरती का सारा मंज़र ,
कब तक बने रहोगे यायावर ?
अन्तिम पाँच पंक्तियाँ परमादरणीय जी की प्रेरणा से
क्यों नहीं आया मुखौटे में जीना तुम्हे ?
क्यों अपनी शर्तों पे जीते रहे तुम ?
क्यों खुशी देकर गरल पीते रहे तुम ?
क्यों घर में ही विद्रोही बन गए ?
तुम गलत नहीं हो इस पर अड़ गए ,
सिद्धान्तों पे चलकर क्या पाया तुमने ?
लोगों ने तुम्हारा प्रयोग किया और चलते बने ,
क्यों नहीं सोचा कि तुम्हारी भी अपनी ज़िन्दगी है ?
दूसरों के लिए जीना हमेशा सही नही होता ,
कभी स्वयं से स्नेह करके देखो ,
ज़िन्दगी कैसी लगती है ?
कैसे खुशनुमा हो जाता है ?
इस धरती का सारा मंज़र ,
कब तक बने रहोगे यायावर ?
अन्तिम पाँच पंक्तियाँ परमादरणीय जी की प्रेरणा से
भारत की बहुतायत जेलों में मानवाधिकार हनन की घटनाएँ सामान्य हैं, कैदियों को अमानुषिक तरीके से दण्डित करना ,प्रताड़ित करना क्या न्याय व्यवस्था का अपमान नहीं है ? पुरुष कैदियों को छोड़ भी दें तो आप जानकार दंग रह जायेंगे कि महिला कैदियों का न सिर्फ़ बलात्कार होता है बल्कि वे गर्भवती भी हो जाती हैं और उन्हें गर्भ भी गिराना पड़ता है।आपराधिक प्रवृत्ति वालों का ठीक है परन्तु फर्जी तरीके से फंसाये गए लोगों की भी संख्या कम नही है। और इस पर हमारे सामजिक संगठन ,न्यायालय ,सरकारें और मीडिया सब चुप्पी साधे रहते हैं। ऐसा क्यों ?
Wednesday, June 25, 2014
प्रेम क्या है ? कैसे है ? क्यों है ? इसे शब्दों में नही बयाँ किया जा सकता क्योंकि प्रेम विचार नही अनुभूति है ,प्रेम को समझने की ज़रूरत नही है इसे जीने की आवश्यकता है और इसे जीने के लिए स्वयं को भूलना पड़ेगा ;आपके दुर्गुण जब तक अपूर्ण नही होंगे तब तक प्रेम कदापि पूर्ण नहीं हो सकता ।
सत्य ही है-----
जा घट प्रेम न सञ्चरे ,सो घट जान मसान।
जैसे खाल लुहार की साँस लेतु बिन प्राण।
प्रेम बनिज नहीं कर सके, चढ़े न नाम की गैल|
मानुष केरी खोलरी, ओड फिरे ज्यों बैल ||
सत्य ही है-----
जा घट प्रेम न सञ्चरे ,सो घट जान मसान।
जैसे खाल लुहार की साँस लेतु बिन प्राण।
प्रेम बनिज नहीं कर सके, चढ़े न नाम की गैल|
मानुष केरी खोलरी, ओड फिरे ज्यों बैल ||
Tuesday, June 17, 2014
कृतज्ञ राष्ट्र रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि पर सादर श्रद्धासुमन अर्पित करता है
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।।
सुभद्रा कुमार चौहान की पंक्तियों द्वारा स्मरण
(जन्म 19 नवंबर 1828 को वाराणसी- बचपन का नाम मणिकर्णिका था लेकिन प्यार से इन्हें मनु बुलाते थे। इनकी माता का नाम भागीरथी बाई तथा पिता का नाम मोरोपंत तांबे था। मोरोपंत एक मराठी थे और मराठा बाजीराव की सेवा में थे।
लोग उन्हें प्यार से 'छबीली' बुलाते। १८४२ में इनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ हुआ, और ये झांसी की रानी बनीं। विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सन १८५१ में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया पर लेकिन चार महीने की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गई।
तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया। 17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा-की-सराय में ब्रिटिश सेना से लड़ते-लड़ते रानी लक्ष्मीबाई शहीद हो गईं।
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज;बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड;ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।
महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
बुझा दीप झाँसी का तब डलहौजी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज;ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग;म से थीं बेज;ार,
उनके गहने कपड;े बिकते थे कलकत्ते के बाज;ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज;ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
इनकी गाथा छोड़;, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड;ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।
ज;ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेजों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
विजय मिली, पर अंग्रेजों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज;बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड;ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।
महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
बुझा दीप झाँसी का तब डलहौजी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज;ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग;म से थीं बेज;ार,
उनके गहने कपड;े बिकते थे कलकत्ते के बाज;ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज;ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
इनकी गाथा छोड़;, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड;ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।
ज;ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेजों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
विजय मिली, पर अंग्रेजों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
समाज में हमारे भाव ,हमारा व्यवहार ,हमारे संस्कार हमें परिभाषित करते हैं ; हमारा प्रत्येक भाव , विचार और कर्म हमें निर्मित करता है , इन सबकी समग्रता में ही हमारा होना न होना निर्धारित होता है।
जिस प्रकार से कलाकार के हाथ अनगढ़ वस्तुओं में नयनाभिराम सुन्दरता भर देते हैं ,कुम्हार कच्ची मिट्टी को घड़े में परिभाषित होने योग्य बना देता है ,सुनार और लुहार भी कच्ची वस्तुओं से आभूषण ,हथियार बना देते हैं उसी प्रकार से मनुष्य में मनुष्योचित गुणों का समावेश आवश्यक है। अगर हमें शिखर छूना है तो ध्यान देना होगा कि हम अपने साथ पत्थर न बांधे ,जो हमें ऊपर नहीं नीचे ले जायेगा।
हम अपने ही हाथों से स्वयं को रोज जकड़ते हैं जितना ही हम स्वयं को जकड़ते हैं उतना ही सत्य हमसे दूर हो जाता है।
Monday, June 16, 2014
गौडपाद (300 ई.) तथा उनके अनुवर्ती आदि शंकराचार्य (700 ई.) ब्रह्म को प्रधान मानकर जीव और जगत् को उससे अभिन्न मानते हैं। उनके अनुसार तत्त्व को उत्पत्ति और विनाश से रहित होना चाहिए। नाशवान् जगत तत्त्वशून्य है, जीव भी जैसा दिखाई देता है वैसा तत्त्वतः नहीं है। जाग्रत और स्वप्नावस्थाओं में जीव जगत् में रहता है परंतु सुषुप्ति में जीव प्रपंच ज्ञानशून्य चेतनावस्था में रहता है। इससे सिद्ध होता है कि जीव का शुद्ध रूप सुषुप्ति जैसा होना चाहिए। सुषुप्ति अवस्था अनित्य है अत: इससे परे तुरीयावस्था को जीव का शुद्ध रूप माना जाता है। इस अवस्था में नश्वर जगत् से कोई संबंध नहीं होता और जीव को पुन: नश्वर जगत् में प्रवेश भी नहीं करना पड़ता। यह तुरीयावस्था अभ्यास से प्राप्त होती है। ब्रह्म-जीव-जगत् में अभेद का ज्ञान उत्पन्न होने पर जगत् जीव में तथा जीव ब्रह्म में लीन हो जाता है। तीनों में वास्तविक अभेद होने पर भी अज्ञान के कारण जीव जगत् को अपने से पृथक् समझता है। परंतु स्वप्नसंसार की तरह जाग्रत संसार भी जीव की कल्पना है। भेद इतना ही है कि स्वप्न व्यक्तिगत कल्पना का परिणाम है जबकि जाग्रत अनुभव-समष्टि-गत महाकल्पना का। स्वप्नजगत् का ज्ञान होने पर दोनों में मिथ्यात्व सिद्ध है। परंतु बौद्धों की तरह वेदांत में जीव को जगत् का अंग होने के कारण मिथ्या नहीं माना जाता। मिथ्यात्व का अनुभव करनेवाला जीव परम सत्य है, उसे मिथ्या मानने पर सभी ज्ञान को मिथ्या मानना होगा। परंतु जिस रूप में जीव संसार में व्यवहार करता है उसका वह रूप अवश्य मिथ्या है। जीव की तुरीयावस्था भेदज्ञान शून्य शुद्धावस्था है। ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का संबंध मिथ्या संबंध है। इनसे परे होकर जीव अपनी शुद्ध चेतनावस्था को प्राप्त होता है। इस अवस्था में भेद का लेश भी नहीं है क्योंकि भेद द्वैत में होता है। इसी अद्वैत अवस्था को ब्रह्म कहते हैं। तत्त्व असीम होता है, यदि दूसरा तत्त्व भी हो तो पहले तत्त्व की सीमा हो जाएगी और सीमित हो जाने से वह तत्त्व बुद्धिगम्य होगा जिसमें ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का भेद प्रतिभासित होने लगेगा। अनुभव साक्षी है कि सभी ज्ञेय वस्तुएँ नश्वर हैं। अत: यदि हम तत्त्व को अनश्वर मानते हैं तो हमें उसे अद्वय, अज्ञेय, शुद्ध चैतन्य मानना ही होगा। ऐसे तत्त्व को मानकर जगत् की अनुभूयमान स्थिति का हमें विवर्तवाद के सहारे व्याख्यान करना होगा। रस्सी में प्रतिभासित होनेवाले सर्प की तरह यह जगत् न तो सत् है, न असत् है। सत् होता तो इसका कभी नाश न होता, असत् होता तो सुख, दु:ख का अनुभव न होता। अत: सत् असत् से विलक्षण अनिवर्चनीय अवस्था ही वास्तविक अवस्था हो सकती है। उपनिषदों में नेति कहकर इसी अज्ञातावस्था का प्रतिपादन किया गया है। अज्ञान भाव रूप है क्योंकि इससे वस्तु के अस्तित्व की उपलब्धि होती है, यह अभाव रूप है, क्योंकि इसका वास्तविक रूप कुछ भी नहीं है। इसी अज्ञान को जगत् का कारण माना जाता है। अज्ञान का ब्रह्म के साथ क्या संबंध है, इसका सही उत्तर कठिन है परंतु ब्रह्म अपने शुद्ध निर्गुण रूप में अज्ञान विरहित है, किसी तरह वह भावाभाव विलक्षण अज्ञान से आवृत्त होकर सगुण ईश्वर कहलाने लगता है और इस तरह सृष्टिक्रम चालू हो जाता है। ईश्वर को अपने शुद्ध रूप का ज्ञान होता है परंतु जीव को अपने ब्रह्मरूप का ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना के द्वारा ब्रह्मीभूत होना पड़ता है। गुरु के मुख से 'तत्त्वमसि ' का उपदेश सुनकर जीव 'अहं ब्रह्मास्मि' का अनुभव करता है। उस अवस्था में संपूर्ण जगत् को आत्ममय तथा अपने में सम्पूर्ण जगत् को देखता है क्योंकि उस समय उसके (ब्रह्म) के अतिरिक्त कोई तत्त्व नहीं होता। इसी अवस्था को तुरीयावस्था या मोक्ष कहते हैं।
इस सृष्टि में शरीर का ही जन्म होता है ,और शरीर की ही मृत्यु होती है ,शरीर के जन्म लेने पर ही 'अमुक' का जन्म होता है ,शरीर के छूटने पर ही 'अमुक' का निधन। शरीर के जन्मते ही नाम के साथ तादात्म्य और शरीर के छूटते ही तादात्म्य समाप्त। वह जो हमारे भीतर है जिसे हम जी रहे हैं , वह शरीर नही है ; जीवन है। जो इस मर्म से अनभिज्ञ है जीवित हुए भी मृत्यु में है ,और जो इस मर्म को जानता है वह मृत्यु में भी जीवन पा जाता है। आप जिस भी व्यक्ति ,वस्तु ,स्थान ,जीव से रूबरू होते हैं आपका ही प्रतिबिम्ब होता है जो आपमें नहीं है उसे आप कहीं नही पा सकते। आपको जो भी पाना है पहले अपने भीतर खोजिए फिर बाहर।
Sunday, June 15, 2014
अर्थात कली से नाज़ुक कौन हो सकता है इस सृष्टि में ? और आकाशीय विद्युत से शक्तिशाली कौन ? परन्तु विद्युत एक दो बार में कली का कुछ नहीं बिगाड़ पाती उसके सौ बार चमकने के बाद भी कली में केवल छोटी सी धारी पैदा होती है। इसके सूक्ष्म अन्वेषण के लिए कलियों के समूह पर अगर किसी नुकीली चीज से दबाव दिया जाय तो आप निश्चित नहीं कर सकते की कली के किस भाग में पहले छिद्र हुआ ?
आपकी समीक्षा के लिए मुझे निर्गतनिखिलकल्मषत्व की स्थिति लेकर ,शुद्ध चित्त ,बुद्धमुक्त होकर , स्थितिप्रज्ञ बनकर मूल्याङ्कन करना होगा ,और जैसा आप जानते हैं साधारण मानव की स्थिति में होने के कारण आप जैसे 'योगी' का मूल्याङ्कन करना मेरे लिए थोड़ा कठिन है फिर भी आदेश की अवपालना का प्रयास करूँगा !
Saturday, June 14, 2014
आत्मभाव किसी विशेष वार्तालाप की प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप
"मुझे हमेशा अपने निर्णय पर संतोष होता है कि इतना पढ़ा-लिखा फिर भी प्राइवेट सेक्टर में हूँ ,स्वतन्त्र पत्रकार हूँ। कम से कम ये स्थिति तो नही ही है कि दूसरों की आज्ञा की अवपालना के लिए आजीविका को बचाने का संकट झेलना पड़े ,नेताओं के आगे -पीछे दौड़ना पड़े ,अधिकारियों से सम्पर्क साधने के लिए चक्कर काटने पड़ें ; और तो और उनकी चापलूसी कर अपनी नौकरी बचाते रहने का दंश झेलना पड़े। जहाँ भी हूँ स्वतन्त्र हूँ ,स्वेच्छा से हूँ ,सही हूँ । अपनी मेहनत से कमाता हूँ और सम्मानजनक स्थिति में रहता हूँ,स्वयं से प्रेम कत्तई नहीं करता परन्तु अपने से ज्यादा विश्वास किसी पे नहीं करता। आईने में अपनी आँख से आँख मिला के कह सकता हूँ कि मैं खुद्दार हूँ ,ख़ुदग़र्ज़ नहीं ! "
विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषान्न चेतांसि त एव धीराः। अर्थात् जो बातें विकार पैदा करने वाली हैं उनके होते हुए भी जिनके मन में विकार न पैदा हो वे धीर हैं , धीरज हैं।
(कुमारसम्भवे कालिदासः)
(कुमारसम्भवे कालिदासः)
कृपाकांक्षी
डॉ. धीरेन्द्र नाथ मिश्र 'धीरज'
रक्त सम्बन्धों और अत्यन्त परिपक्व सम्बन्धों के अतिरिक्त समस्त रिश्ते टूटने के लिए ही बनते हैं ,आप इनके पीछे जितना दौड़ते हैं ,उतना ही ये आपसे दूर भागते हैं और आप इनसे जितना दूर जाने का प्रयास करते हैं उतना ही ये आपके नजदीक आते हैं। मेरा ऐसा मानना है की अगर रिश्तों में खटास की शुरुवात हो तो रिश्ते को थोड़ा सा गैप देना चाहिए फिर भी अगर सुधार न हो तो एक ही चारा है …………………'दिल मिले न मिले हाथ मिलाते रहिये'।
Wednesday, June 11, 2014
कई मित्रों के अनुरोध पर अपार- काव्यसंसार का वर्णन।
नवरसरुचिरां निर्मितिमादधती भारती कवेर्जयति।। १।। (काव्यप्रकाश-प्रथमोल्लासः )
(पद्मत्वादिरूप असाधारण धर्म अथवा अदृष्ट या धर्माधर्मादिरूप ) नियति के द्वारा निर्धारित नियमों से रहित ,आनन्दमात्रस्वभावा ,कवि की प्रतिभा को छोड़कर अन्य किसी के अधीन न रहने वाली तथा (छः रसों के स्थान पर ) नौ रसों से मनोहारिणी काव्यसृष्टि की रचना करने वाली कवि की भारती (वाणी-सरस्वती ) सर्वोत्कर्षशालिनी है।
ब्रह्मा की सृष्टि 'नियति' के सामर्थ्य से निश्चित स्वरूप वाली ,त्रिगुणात्मक होने के कारण ,सुख-दुःखमोहस्वभाव से युक्त ,परमाणु आदि रूप उपादान कारण तथा कर्मादिरूप सहकारिकारण के अधीन ,छः रसों से युक्त और उनसे केवल मनोहारिणी ही नहीं अपितु अरुचिकर भी इस प्रकार की ब्रह्मा की रचना अर्थात सृष्टि है। कवि-भारती की सृष्टि तो इसके विपरीत नियति के नियमों से रहित ,हर प्रकार से ह्लादैकमयी, (रसानुभूति देने वाली ),अनन्यपरतन्त्रा (यहाँ कवि की अपनी स्वतन्त्रता होती है वह जैसे चाहे रचना करे ) और नव रस रुचिरा है (विधाता की सृष्टि में छः रस होते हैं -मधुर ,अम्ल ,लवण ,कटु ,कषाय ,तिक्त। और इनमें कुछ अरुचिकर भी होते हैं तद्विपरीत कवि की सृष्टि में नवरस होते हैं जिनमें श्रृंगार ,हास्य ,करुण ,रौद्र ,वीर ,भयानक ,वीभत्स ,अद्भुत और शान्त हैं। कवि की सृष्टि में अरुचिकर कुछ भी नही होता क्यूंकि जब पाठक करुण रस पढ़ता है तब भी उसे रसानुभूति होती है ,इसलिए कई अर्थों में कवि की सृष्टि विधाता की सृष्टि से श्रेष्ठ मानी गयी है ) इसलिए विजय-शालिनी कवि की भारती को मेरा नमस्कार है।
Monday, January 20, 2014
आपके कृतित्व का ऐसे ही साक्षी बनता रहूँ ईश्वर से प्रार्थना करूँगा कि जन्म जन्मान्तर तक ये सौभाग्य मुझे प्रदान करता रहे ! आपको पढ़ना और आपके भावाभास,भावप्रबलत्व,भावमधुरत्व की रसानुभूति करना काव्य के चरमप्राप्य विगलितवेद्यान्तरास्वाद तक पहुंचा दे इसमें रन्च मात्र भी सन्देह नहीं। एक नहीं सौ -सौ भाग्यों के उदय का सूचक होगा कि आपके कव्यास्वादन से सुधी पाठकों को काव्यानन्द की प्राप्ति हो ;ऐसी मेरी आकांक्षा भी है और शुभकामना भी। पुनः -पुनः आपके सानिध्य हेतु ईश्वर का और इस 'मुखपुस्तक' दुनिया का आभारी हूँ। सादर प्रणाम ! नमन !!
अनेक भाषाओँ के ज्ञाता तथा साहित्य सृजन ,लेखन की महनीय विभूति के साथ ही देशप्रेम के ज़ज्बे से ओतप्रोत हमारे एक वीर सेनानायक (पुलिस उपाधीक्षक ) परम श्रद्धेय हुकम सिंह 'जमीर' जिनके कृतित्व में जिज्ञासुओं ,विद्वानों ,पाठकों के ह्रदय को आप्यायित करने की अतीव क्षमता विद्यमान है ;आपने किसी विषय और परिस्थिति को दृष्टिबाह्य न करते हुए लगभग हर पहलुओं पर अपनी लेखनी चलाई है ,क्या राजनीति ,क्या प्रेम ,क्या रिश्ते ,क्या आध्यात्म ,क्या देशप्रेम ,क्या मनुष्यता ; किंबहुना कौन सा वह क्षेत्र है जो आपकी लेखनी में समाहित नहीं हो गया है। किसी भी देश ,जाति का वर्ग आपसे अनुप्राणित हुए बिना नहीं रह सकता ,आपकी रचनाओं /विचारों को पढ़कर आध्यात्मिकता ,देशप्रेम व मनुष्यता की उच्च भावना हिलोरें मारने लगती है। हमारे देश में जीवन के उपकरणों का सौलभ्य होने के कारण हमारा समाज जीवन संग्राम के विकट संघर्ष से अपने को पृथक रखकर आनन्द की अनुभूति को ,शाश्वत आनन्द की अनुभूति को अपना लक्ष्य मानता है ,इसीलिये काव्य सदा जीवन की विषम परिस्थितियों के भीतर से आनन्द की खोज में संलग्न रहा है। पाठकों के ह्रदय में आनन्द ,रसानुभूति का उन्मेष ही काव्य का अन्तिम लक्ष्य है और आदरणीय हुकम सा हर अवसर पर इस लक्ष्य को प्राप्त करते दिखाई देते हैं। आदरणीय मनु भारद्वाज सा को भी हार्दिक धन्यवाद इस अमूल्य निधि 'आवाज -ए -जमीर' के प्रकाशनार्थ ! मैं बहुत ही अल्पज्ञ हूँ इस सागर समान गहराई वाले भण्डार से जो भी ग्रहण कर सका , मेरा सौभाग्य है। पुनः 'आवाज़ -ए-ज़मीर' के लिए अपनी कोटिशः शुभकामनायें प्रेषित करते हुए हुकम सा को सादर नमन करता हूँ और परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना भी करता हूँ कि आप दीर्घायु होकर हम सबको अपनी साहित्यसुधा से ऐसे ही सिञ्चित करते रहें ।
Friday, January 17, 2014
आज राहुल और केजरीवाल का बयान काफी मिलता जुलता समझ में आया जहाँ एक ओर केजरीवाल खुद सरकार होकर धरने की बात कर रहें हैं वहीं दूसरी ओर राहुल अपनी ही सरकार से सिलिण्डर माँगते दीखे ,राहुल की ख्वाहिश तो पूरी हो गयी क्यूंकि शहजादे हैं लेकिन केजरीवाल का क्या होगा ये अनुत्तरित ही रह गया। निष्कर्ष ये कि जनता के सामने कुछ और यथार्थ में कुछ और आखिर कब तक चलेगी ये नौटंकी ?
Wednesday, January 15, 2014
अशोक चक्रधर बनाम कुमार विश्वास।
मालूम हो कि दिल्ली में सत्ता हस्तान्तरण होते ही अशोक चक्रधर ने हिन्दी साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया था उन्होंने त्यागपत्र तकरीबन दो हफ्ते पूर्व दिया था लेकिन अभी तक उनका त्यागपत्र स्वीकृत नहीं किया गया था और न ही इस बाबत उन्हें कोई सूचना ही मुहैया करायी गयी उन्हें अतीव आश्चर्य उस समय हुआ जब उन्हें हिन्दी साहित्य आकदमी के वार्षिक समारोह का आमन्त्रण पत्र मिला और उसमे उपाध्यक्ष की जगह पर डॉ कुमार विश्वास का नाम था। चक्रधर साहब इस बात से हैरान हैं कि उनके त्यागपत्र की स्वीकृति या अस्वीकृति के बारे में उन्हें क्यूँ नहीं सूचित किया गया जबकि लगभग पाँच दशकों से इस संस्था से जुड़े अशोक चक्रधर ने मुख्यमन्त्री श्री अरविन्द केजरीवाल को इस विषय में दो बार चिट्ठी भी लिखी थी ,
अमेठी में राहुल गांधी को चुनौती देने में जुटे कुमार विश्वास से पूछा गया तो उन्होंने कहा, "अशोक जी सरकार के बहुत करीब रहे हैं. कपिल सिब्बल की कविताओं का अनुवाद किया है, पर सड़क पर उतर कर कभी संघर्ष नहीं किया. वह लाल बत्ती की गाड़ी में घूमते हैं. सारी सुविधाएं मिली हैं और अगर उन्हें बहुत तकलीफ हो रही है तो मैं अरविंद से बात करके वो वापस दिला दूंगा."
चक्रधर पर कुमार विश्वास ने कहा, "मैं उनसे महंगा कवि हूं.' अकादमी के काम-काज पर इस बवाल का क्या असर होगा, यह देखना अभी बाकी है. पर जो कुछ भी हो रहा है उसका कविता या साहित्य से कितना लेना-देना है, आप भी जानते हैं"
अकादमी का वार्षिक समारोह 16 जनवरी को लाल किले पर होना है..............
उपर्युक्त विषय पर आपकी प्रतिक्रिया का आकांक्षी।
डॉ.धीरेन्द्र नाथ मिश्र 'धीरज '
'स्वतन्त्र पत्रकार'
Sunday, January 12, 2014
डॉ. हर्षवर्धन की वजह से बना भारत पोलियोमुक्त देश ,
न रहने पर इतना बड़ा काम ,
जो हैं वो सिर्फ नाम के हुक्काम ,
दिन में मफलर के साथ जुकाम ,
रात में कांग्रेस के साथ लड़ाते जाम ,
छोटे लोगों को मिलता सस्पेंसन ,
बड़े गुर्गों को ससम्मान पेंशन ,
अँधेरे घरों में अभी भी अँधेरा ,
अपने लिए ज़ेड श्रेणी का घेरा ,
मुँह बाए बोलती अब ये सादगी है ,
कहता है नत्थूआ वो भी आम आदमी है।
न रहने पर इतना बड़ा काम ,
जो हैं वो सिर्फ नाम के हुक्काम ,
दिन में मफलर के साथ जुकाम ,
रात में कांग्रेस के साथ लड़ाते जाम ,
छोटे लोगों को मिलता सस्पेंसन ,
बड़े गुर्गों को ससम्मान पेंशन ,
अँधेरे घरों में अभी भी अँधेरा ,
अपने लिए ज़ेड श्रेणी का घेरा ,
मुँह बाए बोलती अब ये सादगी है ,
कहता है नत्थूआ वो भी आम आदमी है।
Friday, January 3, 2014
त्यागमूर्ति ,अनन्त श्री विभूषित ,स्वनामधन्य ,दिल्ली नरेश श्री केजरीवाल उवाच -
मेरे लिए घर देखा जाय। ( ३ जनवरी को हाँ मैं सरकारी आवास लूँगा )
कई दिन तक मौन व्रत।
नहीं -नहीं मैं घर नहीं लूँगा। (४ जनवरी नहीं मैं नहीं लूँगा )
मुझे मना किया गया।
मुझे कई लोगों ने फोन किया।
मुझे छोटा घर चाहिए।
निष्कर्ष -मेरा मन था ,लेकिन ये आम आदमी का तमगा पता नही कैसे दिन दिखायेगा खैर कोई बात नहीं छोटा घर चलेगा।
कमाल करते हो केजरी जी आप भी सीधे -सीधे कह डालो न दिल की बात।
हम भी तो आम आदमी ही हैं समझ सकते हैं आपके सारे जज्बात।।
मेरे लिए घर देखा जाय। ( ३ जनवरी को हाँ मैं सरकारी आवास लूँगा )
कई दिन तक मौन व्रत।
नहीं -नहीं मैं घर नहीं लूँगा। (४ जनवरी नहीं मैं नहीं लूँगा )
मुझे मना किया गया।
मुझे कई लोगों ने फोन किया।
मुझे छोटा घर चाहिए।
निष्कर्ष -मेरा मन था ,लेकिन ये आम आदमी का तमगा पता नही कैसे दिन दिखायेगा खैर कोई बात नहीं छोटा घर चलेगा।
कमाल करते हो केजरी जी आप भी सीधे -सीधे कह डालो न दिल की बात।
हम भी तो आम आदमी ही हैं समझ सकते हैं आपके सारे जज्बात।।
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