परमादरणीयद्वय को सादर प्रणाम ! क्षमा के विषय में यूँ तो बहुत कुछ लिखा जा चूका है शास्त्रों में जैसे -क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास हो…मेरी समझ में क्षमा से विरक्ति और क्रोधादि समय -समय पर अपरिहार्य हो जाते हैं। उदाहरण के लिए एक ऋषि के पास मिलने के लिए उनके छोटे भाई गए जो खुद भी ऋषि थे ,तत्समय अग्रज ऋषि कहीं गए हुए थे ;छोटे भाई को बड़ी जोर से भूख लगी थी उन्होंने देखा की बड़े भाई कि कुटिया आस -पास वृक्षों में फल पके हुए हैं उन्होंने एक आम तोडा और खाने लगे तभी उनके अग्रज वहां आ पहुंचे उन्होंने उनके हाँथ में आम देखा तो पूँछा छोटे भाई ने बता सारी बात बता दी। अग्रज ऋषि ने कहा कि 'बिना पूछे किसी की भी वस्तु लेना चोरी है अतः आप राजा के पास जाओ और इसके लिए दण्ड माँगो। छोटे ऋषि राजा के पास गए राजा उन्हें दण्डित करने को तैयार न हो रहे थे परन्तु उनके हठ के बाद वे मान गए। उस समय चोरी का दण्ड था दोनों हाँथ काट देना निष्कर्षतः उनके दोनों हाँथ काट दिए गए वे फिर अपने अग्रज की कुटिया में आये। बड़े ऋषि बहुत खुश हुए और उन्हें गले से लगा लिया ;फिर दोनों भाई संध्या वन्दन हेतु नदी स्नान को गए जहाँ स्नान के उपरान्त जब छोटे ऋषि ने अपने हाँथ अर्घ्य के लिए उठाये तो वे पूरे हो गए ;आश्चर्यचकित होकर उन्होंने बड़े भाई से इसका कारण पूँछा कि अगर मेरे हाँथ उगा ही देने थे तो आपने मुझे राजा के पास क्यों भेजा ? तो उन्होंने बताया कि चोरी का यथोचित दण्ड राजा के ही अधिकार क्षेत्र में होता है अतः मैंने तुम्हे वहाँ भेजा। अगर मैं तुम्हे क्षमा कर देता तो यह न्यायोचित नही होता। इससे हमें यह सीख मिलती है कि जहाँ दण्ड आवश्यक हो वहां क्षमा से कार्य नही हो सकता।
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