समाज में हमारे भाव ,हमारा व्यवहार ,हमारे संस्कार हमें परिभाषित करते हैं ; हमारा प्रत्येक भाव , विचार और कर्म हमें निर्मित करता है , इन सबकी समग्रता में ही हमारा होना न होना निर्धारित होता है।
जिस प्रकार से कलाकार के हाथ अनगढ़ वस्तुओं में नयनाभिराम सुन्दरता भर देते हैं ,कुम्हार कच्ची मिट्टी को घड़े में परिभाषित होने योग्य बना देता है ,सुनार और लुहार भी कच्ची वस्तुओं से आभूषण ,हथियार बना देते हैं उसी प्रकार से मनुष्य में मनुष्योचित गुणों का समावेश आवश्यक है। अगर हमें शिखर छूना है तो ध्यान देना होगा कि हम अपने साथ पत्थर न बांधे ,जो हमें ऊपर नहीं नीचे ले जायेगा।
हम अपने ही हाथों से स्वयं को रोज जकड़ते हैं जितना ही हम स्वयं को जकड़ते हैं उतना ही सत्य हमसे दूर हो जाता है।
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