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Sunday, August 3, 2014

पता नही किस उद्वेग और आक्रोश से इस काव्य का सृजन हुआ है ये तो  नही बता सकता परन्तु इतना जरूर है कि  थोड़ा भी  सहृदय व्यक्ति इस काव्यकृति से अंतर्मन तक हिल जायेगा हम जैसे न जाने कितनों की आवाज इस काव्य में सुनाई दे रही है ,आप जिसे मिल गए उसे सोने /चांदी की कोई जरुरत ही नही फिर भी नतशीश नमन करता हूँ मैं मातृसत्ता को जिसने आपकी सहचरी बनकर आपके सभी निर्णयों में न केवल स्वीकारोक्ति दी वरन मनसा ,वाचा ,कर्मणा आपकी सहभागी बनी रहीं ,आप जैसे 'ज़मीर' कई युगों में एक पैदा होते हैं और जिसका जीवन ही स्वयं का नही है औरों के लिए है उसका जीना है तो जीना है इस संसार में।

मुसीबत की क्या बिसात आपके सामने आये ,
मुश्किल में इतना तेज ही नही की टिक पाये ,
मानता हूँ कि जो छपते  हैं वही बिकते हैं ज़माने में  ,
कलम भी सोचती है कि ज़मीर पे क्या लिख पाये ,
भारत माँ भी नाज़ करती है अपने ऐसे सपूत पर ,
वो भी चाहती है कि कहीं कोई तो ज़मीर आये।




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