वो कहते हैं न परमादरणीय कि ,
हर चश्मे का अलग असर है ,
सबकी अपनी अलग नजर है ,
दृश्य न सुन्दर और असुन्दर,
यह तो दृष्टा पर निर्भर है ,
करता 'धीरज' कहाँ बसर है ,
किसको गुनता कहाँ खबर है ,
इस 'ज़मीर' का अनुचर बनकर ,
मिलती नित ही नयी डगर है ,
नाउम्मीदी कभी न आई ,
सीख सका न मैं चतुराई ,
शब्दसिंधु की महिमा भी तो ,
इस 'ज़मीर' ने ही सिखलाई ,
जिसको तकते स्वयं शिखर हैं ,
जिसका तन -मन ही ईश्वर है ,
स्नेह ,नम्रता भी कृतकृत्य है ,
कभी शून्य पर आज शिखर है ,
सादर समर्पित
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