कई मित्रों के अनुरोध पर अपार- काव्यसंसार का वर्णन।
नवरसरुचिरां निर्मितिमादधती भारती कवेर्जयति।। १।। (काव्यप्रकाश-प्रथमोल्लासः )
(पद्मत्वादिरूप असाधारण धर्म अथवा अदृष्ट या धर्माधर्मादिरूप ) नियति के द्वारा निर्धारित नियमों से रहित ,आनन्दमात्रस्वभावा ,कवि की प्रतिभा को छोड़कर अन्य किसी के अधीन न रहने वाली तथा (छः रसों के स्थान पर ) नौ रसों से मनोहारिणी काव्यसृष्टि की रचना करने वाली कवि की भारती (वाणी-सरस्वती ) सर्वोत्कर्षशालिनी है।
ब्रह्मा की सृष्टि 'नियति' के सामर्थ्य से निश्चित स्वरूप वाली ,त्रिगुणात्मक होने के कारण ,सुख-दुःखमोहस्वभाव से युक्त ,परमाणु आदि रूप उपादान कारण तथा कर्मादिरूप सहकारिकारण के अधीन ,छः रसों से युक्त और उनसे केवल मनोहारिणी ही नहीं अपितु अरुचिकर भी इस प्रकार की ब्रह्मा की रचना अर्थात सृष्टि है। कवि-भारती की सृष्टि तो इसके विपरीत नियति के नियमों से रहित ,हर प्रकार से ह्लादैकमयी, (रसानुभूति देने वाली ),अनन्यपरतन्त्रा (यहाँ कवि की अपनी स्वतन्त्रता होती है वह जैसे चाहे रचना करे ) और नव रस रुचिरा है (विधाता की सृष्टि में छः रस होते हैं -मधुर ,अम्ल ,लवण ,कटु ,कषाय ,तिक्त। और इनमें कुछ अरुचिकर भी होते हैं तद्विपरीत कवि की सृष्टि में नवरस होते हैं जिनमें श्रृंगार ,हास्य ,करुण ,रौद्र ,वीर ,भयानक ,वीभत्स ,अद्भुत और शान्त हैं। कवि की सृष्टि में अरुचिकर कुछ भी नही होता क्यूंकि जब पाठक करुण रस पढ़ता है तब भी उसे रसानुभूति होती है ,इसलिए कई अर्थों में कवि की सृष्टि विधाता की सृष्टि से श्रेष्ठ मानी गयी है ) इसलिए विजय-शालिनी कवि की भारती को मेरा नमस्कार है।
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