बचपन -
क्या आपको याद है ?
कड़क ठण्ड में अर्धनग्न कपड़ों में घूमना ,
तितली पकड़कर मुट्ठी में लेकर चूमना ,
तपती दोपहरी में नंगे पाँव टहलना ,
मासूम से पाँवों का रेत से जलना ,
त्यौहारों के बहुत पहले आने की ललक ,
कभी -कभार देखते थे शहर की झलक ,
अपनी इच्छा पर जम के अड़ जाना ,
छोटी बातों पर किसी से लड़ जाना ,
मेलों के लिए पाँच रूपये की चाह ,
केवल पॉपुलर थी जलेबी की आह ,
तख्ती पे लिखकर चमकाने की आदत ,
रंगों से स्याही बनाने की आदत ,
गुरु जी और बड़ों के पैरों में झुकना ,
आता नहीं था बचपन में भी रुकना ,
कक्षा में जोर -जोर से पहाड़े पढ़ाना ,
गुरु जी के लिए भरकर साफ़ पानी लाना ,
गलती पे बेतों से जमकर पिटाई ,
इसके बिना विद्या कब किसको आई ,
दिये की रोशनी और दिये का भभकना ,
हवा के रुकने तक दिये को तकना ,
बारिस के मौसम में घर का टपकना ,
कोने -किनारों में बर्तन को रखना ,
इतने पे भी बारिस जम के बरसती ,
हर माँ थी रोटी बनाने को तकती ,
फिर मच्छरों की कृपा क्या बतायें ,
सोते थे जब उनको संग में सुलाए ,
इन सब विपत्तियों से जब होते आहत,
बरस पड़ती तब-तब माँ-पापा की चाहत ,
खेतों ,खलिहानों में भी जमके रहना ,
बचपन का भी मित्रों क्या ही है कहना ,
हमने ग़रीबी को शिद्दत से झेला ,
अब नर्सरी होते तब था तबेला ,
कहने में लज्जा तनिक भी न होती ,
गरीबी की बातें गरीबों से होती ,
परिश्रम का तोहफ़ा तो तब जाके पाया ,
अच्छे विचारों को मन में बिठाया ,
ग़रीबी विचारों में घुसने न पाये ,
घूमें बेशक हम आधे पेट खाए ,
गर्व होता भूत के वो दिन याद करके ,
भूले न संस्कृति और संस्कार घर के ,
सामान्य जीवन तो अब जी रहे हैं ,
सब के सवालात अब सी रहे हैं ,
तब घर की बदहाली हम देखते थे ,
जलती दीवाली सपन देखते थे ,
अब देश कन्गाल झुकता -झुकाता ,
हिंसा -अहिंसा की बातें बताता ,
तब की गरीबी सपन बेचती थी ,
धोती को करके कफ़न बेचती थी ,
अब की गरीबी विचारों में बैठी ,
नेता ,अभिनेता और शिक्षक में पैठी ,
आओ भगायें गरीबी वचन की ,
स्थापना होगी सच्चे सुमन की ,
डॉ.धीरेन्द्र नाथ मिश्र 'धीरज'
'स्वतन्त्र पत्रकार '
क्या आपको याद है ?
कड़क ठण्ड में अर्धनग्न कपड़ों में घूमना ,
तितली पकड़कर मुट्ठी में लेकर चूमना ,
तपती दोपहरी में नंगे पाँव टहलना ,
मासूम से पाँवों का रेत से जलना ,
त्यौहारों के बहुत पहले आने की ललक ,
कभी -कभार देखते थे शहर की झलक ,
अपनी इच्छा पर जम के अड़ जाना ,
छोटी बातों पर किसी से लड़ जाना ,
मेलों के लिए पाँच रूपये की चाह ,
केवल पॉपुलर थी जलेबी की आह ,
तख्ती पे लिखकर चमकाने की आदत ,
रंगों से स्याही बनाने की आदत ,
गुरु जी और बड़ों के पैरों में झुकना ,
आता नहीं था बचपन में भी रुकना ,
कक्षा में जोर -जोर से पहाड़े पढ़ाना ,
गुरु जी के लिए भरकर साफ़ पानी लाना ,
गलती पे बेतों से जमकर पिटाई ,
इसके बिना विद्या कब किसको आई ,
दिये की रोशनी और दिये का भभकना ,
हवा के रुकने तक दिये को तकना ,
बारिस के मौसम में घर का टपकना ,
कोने -किनारों में बर्तन को रखना ,
इतने पे भी बारिस जम के बरसती ,
हर माँ थी रोटी बनाने को तकती ,
फिर मच्छरों की कृपा क्या बतायें ,
सोते थे जब उनको संग में सुलाए ,
इन सब विपत्तियों से जब होते आहत,
बरस पड़ती तब-तब माँ-पापा की चाहत ,
खेतों ,खलिहानों में भी जमके रहना ,
बचपन का भी मित्रों क्या ही है कहना ,
हमने ग़रीबी को शिद्दत से झेला ,
अब नर्सरी होते तब था तबेला ,
कहने में लज्जा तनिक भी न होती ,
गरीबी की बातें गरीबों से होती ,
परिश्रम का तोहफ़ा तो तब जाके पाया ,
अच्छे विचारों को मन में बिठाया ,
ग़रीबी विचारों में घुसने न पाये ,
घूमें बेशक हम आधे पेट खाए ,
गर्व होता भूत के वो दिन याद करके ,
भूले न संस्कृति और संस्कार घर के ,
सामान्य जीवन तो अब जी रहे हैं ,
सब के सवालात अब सी रहे हैं ,
तब घर की बदहाली हम देखते थे ,
जलती दीवाली सपन देखते थे ,
अब देश कन्गाल झुकता -झुकाता ,
हिंसा -अहिंसा की बातें बताता ,
तब की गरीबी सपन बेचती थी ,
धोती को करके कफ़न बेचती थी ,
अब की गरीबी विचारों में बैठी ,
नेता ,अभिनेता और शिक्षक में पैठी ,
आओ भगायें गरीबी वचन की ,
स्थापना होगी सच्चे सुमन की ,
डॉ.धीरेन्द्र नाथ मिश्र 'धीरज'
'स्वतन्त्र पत्रकार '
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