जब भी पड़ता कठिन समय ,अनुरागसुधा बरसाता है ,
ईश्वर तू ही व्याप्य चराचर ,अर्ध -पूर्ण बन जाता है ,
पूर्ण रिक्त होकर भी रहता ,पूर्ण सदा आकार तेरा ,
जल -कण क्या नभ सबमे मिलता, प्यारा सा संसार तेरा ,
प्रकृति -पुरुष की ये मीमांसा, अलग -अलग जग बतलाता ,
एक शक्ति तो है अवश्य ही ,जो है जग की निर्माता ,
मात -पिता का रूप यहाँ ,देवो से बढ़कर है जानो ,
नहीं किया अनुभव यदि तो फिर करो -धरो और पहचानों,
स्वयं सहन कर भूख खिलाती बच्चों को दे प्यार -दुलार,
पर बूढी माँ पर ये करते दानव होकर अत्याचार ,
निज का हाथ जलाकर माँ ,देती भोजन नित पंथ निहार ,
जली भुनी ये रोटी कहते , माँ का लो तुम हाथ निहार ,
जले हाँथ से ,तप बुखार से तुमको देती शांत शयन ,
पर निहारते तुम भी क्या माता का दुःखपूर्ण नयन ,
माँ क्या खाओगी कह देते ,तो क्या लगता पाप अपार ?
कहाँ दर्द है माँ बतलाओ रहती तुम क्यूँ तार -तार ?
बड़े दिनों से देखा है माँ खोई -खोई रहती हो ?
सब सह लेती शांत भाव से कभी नहीं कुछ कहती हो ?
माँ की महिमा क्या कह सकता कवि या सृष्टा का संसार ,
शब्द ,अर्थ सब कुछ चुक जाता चाहे जितना हो भण्डार ,
कई माह तक लेकर तुमको ,रखती कितना धैर्य अपार ,
सघन कक्ष में भर्ती होगे ,गर रख लो दो दिन ये भार ,
नहीं शब्द कह सकते माँ के दिल में है कितना विस्तार ,
नित्य करो माँ की आराधना कर लो पूजा बारम्बार ,
सेवा कर लो जब तक हैं ये माता -पिता का दैहिक रूप ,
नहीं मांगते मरने पर दो ,उनको चाहे निशिदिन धूप ,
वाच्य कर्म और मन से जिसने इनको दिल से प्यार किया ,
नहीं जरूरत किसी लोक की ,समझो खुद को तार लिया ,
स्वार्थ भाव को भूल अगर माँ तुमको जिगर बनाती है ,
फिर क्यूँ भूल उसे -प्रियतमा तेरे मन को भाती है ,
जन्म बना लो सफल सहज ही माँ को देकर निज अनुरक्ति ,
माँ -पितु ,भारत माँ की सेवा ,सबसे बढ़कर इनकी भक्ति !!!
आप सबकी प्रतिक्रिया एवं सुझाव का आकांक्षी -
डॉ. धीरेन्द्र नाथ मिश्र 'धीरज '
'स्वतन्त्र पत्रकार '
पर बूढी माँ पर ये करते दानव होकर अत्याचार ,
निज का हाथ जलाकर माँ ,देती भोजन नित पंथ निहार ,
जली भुनी ये रोटी कहते , माँ का लो तुम हाथ निहार ,
जले हाँथ से ,तप बुखार से तुमको देती शांत शयन ,
पर निहारते तुम भी क्या माता का दुःखपूर्ण नयन ,
माँ क्या खाओगी कह देते ,तो क्या लगता पाप अपार ?
कहाँ दर्द है माँ बतलाओ रहती तुम क्यूँ तार -तार ?
बड़े दिनों से देखा है माँ खोई -खोई रहती हो ?
सब सह लेती शांत भाव से कभी नहीं कुछ कहती हो ?
माँ की महिमा क्या कह सकता कवि या सृष्टा का संसार ,
शब्द ,अर्थ सब कुछ चुक जाता चाहे जितना हो भण्डार ,
कई माह तक लेकर तुमको ,रखती कितना धैर्य अपार ,
सघन कक्ष में भर्ती होगे ,गर रख लो दो दिन ये भार ,
नहीं शब्द कह सकते माँ के दिल में है कितना विस्तार ,
नित्य करो माँ की आराधना कर लो पूजा बारम्बार ,
सेवा कर लो जब तक हैं ये माता -पिता का दैहिक रूप ,
नहीं मांगते मरने पर दो ,उनको चाहे निशिदिन धूप ,
वाच्य कर्म और मन से जिसने इनको दिल से प्यार किया ,
नहीं जरूरत किसी लोक की ,समझो खुद को तार लिया ,
स्वार्थ भाव को भूल अगर माँ तुमको जिगर बनाती है ,
फिर क्यूँ भूल उसे -प्रियतमा तेरे मन को भाती है ,
जन्म बना लो सफल सहज ही माँ को देकर निज अनुरक्ति ,
माँ -पितु ,भारत माँ की सेवा ,सबसे बढ़कर इनकी भक्ति !!!
आप सबकी प्रतिक्रिया एवं सुझाव का आकांक्षी -
डॉ. धीरेन्द्र नाथ मिश्र 'धीरज '
'स्वतन्त्र पत्रकार '
No comments:
Post a Comment