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Wednesday, September 4, 2013


रे रे चातक ! सावधान मनसा मित्र क्षणं श्रूयताम ,
अम्भोदाह   बहवो वसन्ति गगने सर्वैपि नैतादृशः ,
केचिद दृष्टिभिराद्रयान्ति वसुधाम ,गर्जन्ति केचिद वृथाह ,
यं  यं  पश्यशि  तस्य तस्य पुरतो माँ ब्रूहि दीनं वचः …………………
{संस्कृत फॉण्ट न  होने की वजह से अवग्रह की अशुद्धि है एवं हलन्त्य की भी क्षमा करें।  }
हे  मित्र चातक ! सावधान होकर  क्षण भर  के लिए मेरी बात को सुनो ,
आकाश में बहुत से बदल रहते हैं सभी एक प्रकार के नहीं हैं ,
कोई वर्षा से पृथ्वी को आद्र  कर देता है ,कोई व्यर्थ ही गरजता है ,
जिसे -जिसे देखिये ,सबके समक्ष दीन वचन मत कहिये ,
( हर जगह अभिव्यक्ति नहीं करनी चाहिए )

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