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Monday, September 30, 2013

परम आदरणीय दीदी जी डॉ.गीता त्रिपाठी जी की प्रेरणा द्वारा !!

लालू के दिन लद गये भैया बड़े हर्ष की बात है ,
नहीं मनुज के केवल ये जीवों के भी जज्बात हैं ,
महल भूमि में मिल जाते हैं छोटी सी एक आह से ,
चिंगारी शोला बन जाती करुना भरी पुकार से ,
जीव जंतु कुछ स्वयं न कहते ,ये विडंबना भारी है ,
मूक जीव के मन की पीड़ा लगती कठिन करारी है ,
कहते ग्रन्थ देख लो भाई ,खाते वक्त न बोलो बाण ,
कोटिश जीव का चारा खाया फिर भी तुम करते अभिमान ,
दुआ -बद्दुआ दोनों ही तो समय साथ ही चलते हैं ,
महल बनाती  अगर दुआ ,तो आह संग ये जलते हैं (बद्दुआ से )
समय एक सा रहा नहीं चाहे वो राम या रावण हो ,
सबको ये यथार्थ दिखलाता ,पत्थर हो या राजकण हो ,
एक समय था बस बिहार में लालू -लालू  होता था ,
थाने या गाडी में अफसर  भैंस बेच के सोता था ,
चोरी करके चोर निकलता ,लेके अस्सी की रफ़्तार ,
पीछे पुलिस दौड़ती लेकर गाडी में दस की रफ़्तार ,
सड़के ,भवन ,और रुग्णालय सबका रहता खस्ताहाल ,
बस भी दो तल की हो जाती ये था लालू जी का काल,
लालू ने बदनाम किया इस जग में जिसका नाम बिहार ,
हर्ष हो रहा ख़ुशी हो रही उनको मिला आज व्यवहार ,
यह विडंबना भारत की लालू जैसा नेता होता ,
चयन गलत का मान प्रतिष्ठा सब कुछ ही तो है खोता ,
लालू ,आजम या की दिग्विजय जनसेवा के योग्य नहीं ,
जनता और जीव हैं साहब खाने के ये भोग्य नहीं। 


    प्रणेता 
डॉ. धीरेन्द्र नाथ मिश्र 'धीरज '
'स्वतंत्र पत्रकार '

Sunday, September 29, 2013


जब भी पड़ता कठिन समय ,अनुरागसुधा बरसाता है ,
ईश्वर तू ही व्याप्य चराचर ,अर्ध -पूर्ण बन जाता है ,
पूर्ण रिक्त होकर भी रहता ,पूर्ण सदा आकार तेरा ,
जल -कण क्या नभ सबमे मिलता, प्यारा सा संसार तेरा ,
प्रकृति -पुरुष की ये  मीमांसा, अलग -अलग जग बतलाता ,
एक शक्ति तो है अवश्य ही ,जो है जग की निर्माता ,
मात -पिता का रूप यहाँ ,देवो से बढ़कर है जानो ,
नहीं किया अनुभव यदि तो फिर करो -धरो और पहचानों,
स्वयं  सहन कर भूख खिलाती बच्चों को दे प्यार -दुलार,
पर बूढी माँ पर ये करते दानव होकर अत्याचार ,
निज का हाथ जलाकर माँ ,देती भोजन नित पंथ निहार ,
जली भुनी ये रोटी कहते  , माँ का लो तुम हाथ निहार ,
जले हाँथ से ,तप बुखार से तुमको देती शांत शयन ,
पर निहारते तुम भी क्या माता का दुःखपूर्ण  नयन ,
माँ क्या खाओगी कह देते ,तो क्या लगता पाप अपार ?
कहाँ दर्द है माँ बतलाओ रहती तुम क्यूँ तार -तार ?
बड़े दिनों से देखा है माँ खोई -खोई रहती हो ?
सब सह लेती शांत भाव से कभी नहीं कुछ कहती हो ?
माँ की महिमा क्या कह सकता  कवि या सृष्टा का संसार ,
शब्द ,अर्थ सब कुछ चुक जाता चाहे जितना हो भण्डार ,
कई माह तक लेकर तुमको ,रखती कितना धैर्य अपार ,
सघन कक्ष में भर्ती होगे ,गर रख लो दो दिन ये भार ,
नहीं शब्द कह सकते माँ के दिल में है कितना विस्तार ,
नित्य करो माँ की आराधना कर लो पूजा बारम्बार ,
सेवा कर लो जब तक हैं  ये माता -पिता का दैहिक रूप ,
नहीं मांगते मरने पर दो ,उनको चाहे निशिदिन धूप ,
वाच्य कर्म और मन से जिसने इनको दिल से प्यार किया ,
नहीं जरूरत किसी लोक की ,समझो खुद को तार लिया ,
स्वार्थ भाव को भूल अगर माँ तुमको जिगर बनाती है ,
फिर क्यूँ भूल उसे -प्रियतमा तेरे मन को भाती है ,
जन्म बना लो सफल सहज ही माँ को देकर निज अनुरक्ति ,
माँ -पितु ,भारत माँ की सेवा ,सबसे बढ़कर इनकी भक्ति !!!


आप सबकी प्रतिक्रिया एवं सुझाव का आकांक्षी -
डॉ. धीरेन्द्र नाथ मिश्र 'धीरज '
'स्वतन्त्र पत्रकार '



Saturday, September 28, 2013

जिंदगी की राहों में आपने ख़ुशी भेजी ,
हर रसों से पूरित सपनों की जिंदगी भेजी ,
करूण,हास्य ,रौद्र ,वीर रस हो या की शांत हो
श्रृंगार ,भयानक ,अद्भुत ,वीभत्स से जो क्लांत हो ,
गीत आपके सभी रसों से सराबोर हैं 
गीत गुनगुना रहे ये चंदा औ चकोर हैं ,
कौन कहता विधाता की सृष्टि ही विशाल है ,
सुरों और कवियों की दुनिया बेमिशाल है ,
छह रस की दुनिया ब्रह्मा की बनी नियमयुक्त ,
नौ रस परिपूर्ण कवि स्वतंत्र और नियममुक्त ,
विधाता की सृष्टि में जहाँ हर्ष और विषाद हैं ,
सुर/कवि की दुनिया में केवल आह्लाद है ,
करूण रस में भी सबको मिलता रसाभास है ,
व्यथित मन भी करने लगता हास औ परिहास है ,
देख न सका जो कभी वैभव साम्राज्य का ,
कवि जगत में देखता ,चित्रण वो रामराज्य का ,
गरीबी की दुनिया से जो यहाँ अनभिज्ञ हैं ,
कवि जगत में सहजता से सब कुछ ही भिज्ञ है ,
भूतकाल का सृजन भी यूँ सहज सुप्राप्य है ,
वर्तमान ज्यों  सहज सुकाव्यता से व्याप्य है ,
दिगदिगन्त/देवलोक सब यहाँ दृष्टव्य हैं ,
कवि के लिए सृष्टि में कुछ भी गंतव्य है ,
कवि को नहीं रोकता घनघोर अन्धकार भी ,
पुष्प सी सुगंध देती नाग की फनकार भी ,
लता दी की प्रतिभा पे विश्व में सद्भाव है ,
ऐसी स्वर की देवी खेती सरगमों की नाव है ,
सृष्टि में नहीं हुआ अवतार ऐसे गान का ,
हर किसी के लिए ये भी विषय है सम्मान का ,
दे न सका कोई जन्म ऐसे सुरधाम को ,
बच्चा -बच्चा जानता है लता दी के नाम को ,
कोटि वर्ष जियें आप देश का सौभाग्य है ,
नहीं हुआ कोई ऐसा न ही संभाव्य है ,
'धीरज' की कलम का प्रणाम स्वीकार करें !
जन-जन के मन में आप सुरों संग विहार करें !!

चरणचिन्तकानुगामी -
डॉ. धीरेन्द्र नाथ मिश्र 'धीरज'
'स्वतंत्र पत्रकार '










कहते हैं जब तानसेन गाना गाते थे तो आकाश से बारिश होने लगती थी. उनकी रागों में ऐसा जादू था जिस पर सभी मुग्ध हो जाते थे. यह होता है संगीत का जादू जो दिलों को बांधकर सभी दुख भूलने को मजबूर कर दे. संगीत को भारतीय सिनेमा ने भी बहुत कुछ दिया है. भारतीय संगीत में बॉलिवुड के गायकों का भी अहम स्थान है जिन्होंने सिनेमा के जरिए इस कला को जीवित रखा. सिनेमा जगत में हम जब भी बेहतरीन गायकों का नाम लेते हैं तो पुरुषों की जमात ज्यादा मिलती है पर महिलाओं के नाम इतने चन्द हैं कि उन्हें आप अंगुलियों पर गिन सकते हैं. हिन्दी सिनेमा में गायकी का दूसरा नाम हैं लता मंगेशकर.

लता मंगेशकर एक ऐसी शख्सियत हैं जिसने देश को ना जानें कितने ही नगमे दिए. यह वही लता मंगेशकर हैं जिन्होंने 1962 में चीन के साथ हुई लड़ाई के बाद एक कार्यक्रम में पंडित प्रदीप का लिखा, ऐ मेरे वतन के लोगों.. गाया तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की आंखों से आंसू निकल पड़े थे. देश की स्वर कोकिला की पदवी धारण किए हुए इस महान गायिका ने आज जिंदगी के 84 साल पूरे किए हैं

लता मंगेशकर का जीवन
लता मंगेशकर का जन्म 28 सितंबर, 1929 को मध्यप्रदेश में इंदौर शहर के एक मध्यम वर्गीय मराठी परिवार में हुआ था. उनके पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर मराठी रंगमंच से जुड़े हुए थे. पांच वर्ष की उम्र में लता ने अपने पिता के साथ नाटकों में अभिनय शुरू कर दिया और इसके साथ ही वह अपने पिता से संगीत की शिक्षा लेने लगीं.

लता ने उस्ताद अमानत अली खां भिंडी बाजार वाले से शास्त्रीय संगीत सीखना शुरू किया, लेकिन विभाजन के दौरान खां साहब पाकिस्तान चले गए. इसके बाद लता ने अमानत खां देवास वाले से संगीत की शिक्षा लेनी प्रारंभ की. पंडित तुलसीदास शर्मा और उस्ताद बड़े गुलाम अली खां जैसी जानी मानी शख्सियतों ने भी उन्हें संगीत सिखाया.

वर्ष 1942 में तेरह वर्ष की छोटी उम्र में ही लता के सिर से पिता का साया उठ गया और परिवार की जिम्मेदारी उनके ऊपर आ गई. इसके बाद उनका पूरा परिवार पुणे से मुंबई आ गया. हालांकि लता को फिल्मों में अभिनय करना जरा भी पसंद नहीं था बावजूद इसके परिवार की आर्थिक जिम्मेदारी को उठाते हुए उन्होंने फिल्मों में अभिनय करना शुरू कर दिया. वर्ष 1942 में लता को पहली बार “मंगलगौर” में अभिनय करने का मौका मिला. वर्ष 1945 में लता की मुलाकात संगीतकार गुलाम हैदर से हुई.




लता मंगेशकर का कॅरियर
लता ने जिस समय हिंदी फिल्मों में गायिकी की शुरुआत की उस दौरान नूरजहां, शमशाद बेगम और जोहरा बाई अंबाले वाली जैसी गायिकाओं का वर्चस्व था.

गुलाम हैदर लता के गाने के अंदाज से काफी प्रभावित हुए और उन्होंने फिल्म निर्माता एस. मुखर्जी से यह गुजारिश की कि वह लता को अपनी फिल्म शहीद में गाने का मौका दें. एस. मुखर्जी को उनकी आवाज पसंद नहीं आई और उन्होंने लता को अपनी फिल्म में लेने से इंकार कर दिया. इस बात को लेकर गुलाम हैदर काफी गुस्सा हुए और उन्होंने कहा यह लड़की आगे इतना अधिक नाम करेगी कि बड़े-बड़े निर्माता निर्देशक उसे अपनी फिल्मों में गाने के लिए गुजारिश करेंगे.

पचास के दशक में गुलाम हैदर की कही गई बात सच निकली और लता मंगेशकर, शंकर जयकिशन, एस.डी.बर्मन, सी.रामचंद्रन मोहन, हेमन्त कुमार और सलिल चौधरी जैसे नामी-गिरामी संगीतकारों की चहेती गायिका बन गईं. साहिर लुधियानवी के लिखे गीत और एस.डी. बर्मन के संगीत निर्देशन में लता ने कई हिट गाने गाए. साहिर लुधियानवी के रचित गीत पर लता ने वर्ष 1961 में फिल्म “हम दोनों” के लिए “अल्लाह तेरो नाम.. “ भजन गाया जो बहुत लोकप्रिय हुआ.

फिल्म “नागिन” में बीन की धुन पर लता का गाया गाना “मन डोले मेरा तन डोले..” आज भी लोगों के द्वारा पसंद किया जाता है. साठ के दशक में हेमन्त दा के संगीत निर्देशन में “आनंद मठ” के लिए लता मंगेशकर ने “वन्दे मातरम..” गीत गाकर अपनी एक अलग पहचान बनाई.


पचास के दशक में लता मंगेशकर ने गीतकार राजेन्द्र किशन के लिए सी. रामचन्द्र की धुनों पर कई गीत गाए, जिनमें फिल्म “अनारकली” के गीत ये जिंदगी उसी की है.., जाग दर्द इश्क जाग.. जैसे गीत इन तीनों फनकारों की जोड़ी की बेहतरीन मिसाल है. इसके अलावा सी. रामचंद्र के संगीत निर्देशन में लता ने प्रदीप के लिखे गीत पर एक कार्यक्रम के दौरान एक गैर फिल्मी गीत “ए मेरे वतन के लोगों..”गाया. इस गीत को सुनकरप्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू इतने प्रभावित हुए कि उनकी आंखों में आंसू आ गए.

अनिल बिश्वास, सलिल चौधरी, शंकर जयकिशन, एस.डी. बर्मन, आर.डी. बर्मन, नौशाद, मदनमोहन, सी. रामचंद्र इत्यादि सभी संगीतकारों ने लता की प्रतिभा का लोहा माना. लता जी ने “दो आंखें बारह हाथ”, “दो बीघा ज़मीन,” “मदर इंडिया”, “मुग़ल ए आज़म” आदि महान फ़िल्मों में गाने गाए हैं. इतिहास गवाह है कि 60, 70, 80, 90 के दशक में फिल्म जगत पर लता और उनकी बहन आशा ने ऐसा दबदबा कायम किया कि उस दौर किसी अन्य गायिका का लोगों को नाम तक याद न रहा.

हिन्दी सिनेमा के शो मैन कहे जाने वाले राजकपूर को सदा अपनी फिल्मों के लिए लता मंगेशकर की आवाज की जरूरत रहा करती थी. राजकपूर लता के आवाज से इस कदर प्रभावित थे कि उन्होंने लता मंगेशकर को सरस्वती का दर्जा तक दे रखा था. 90 का दशक आते-आते लता कुछ चुनिंदा फिल्मों के लिए ही गाने लगीं. हाल के सालों में वह यश चोपड़ा की फिल्मों की आवाज बनीं. ‘जब कभी भी जी चाहे’ (दाग), ‘कभी कभी मेरे दिल में’ (कभी कभी), ‘नीला आसमां सो गया’ (सिलसिला), ‘मेरी बिंदिया तेरी निंदिया’ (लम्हे), ‘ढोलना’ (दिल तो पागल है) और ‘तेरे लिए’ (वीर जारा) आदि लता के मशहूर गीत हैं जो उन्होंने यश चोपड़ा के लिए गाए.


लता मंगेशकर को मिले पुरस्कार
लता मंगेशकर को उनके गाए गीत के लिये चार बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. लता मंगेशकर को सबसे पहले वर्ष 1958 में प्रदर्शित फिल्म “मधुमती” के गीत आजा रे परदेसी.. गीत के लिए सर्वश्रेष्ठ पा‌र्श्वगायिका का फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया था. इसके बाद वर्ष 1962 में फिल्म “बीस साल बाद” के गाने कहीं दीप जले कहीं दिल फिर वर्ष 1965 में फिल्म “खानदान” के तुम्हीं मेरे मंदिर तुम्हीं मेरी पूजा.. और वर्ष 1969 में फिल्म “जीने की राह” के गाने आप मुझे अच्छे लगने लगे.. के लिए भी लता मंगेशकर फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित की गईं.

इसके अलावे वर्ष 1993 में उन्हें फिल्म फेयर का लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड भी दिया गया. इसके साथ ही वर्ष 1994 में लता मंगेशकर फिल्म “हम आपके हैं कौन” के गाने दीदी तेरा देवर दीवाना.. गाने के लिए फिल्म फेयर के विशेष पुरस्कार से सम्मानित की गईं. लता मंगेशकर को उनके गाए गीत के लिए वर्ष 1972 में फिल्म “परिचय”, वर्ष 1975 में “कोरा कागज” और वर्ष 1990 में फिल्म “लेकिन” के लिए नेशनल अवार्ड से भी सम्मानित किया गया.

इसके अलावा लता मंगेशकर को वर्ष 1969 में पदमभूषण, 1997 में राजीव गांधी सम्मान,1999 में पदमविभूषण जैसे कई सम्मान प्राप्त हो चुके हैं. सन् 1989 मे उन्हें फिल्म जगत का सर्वोच्च सम्मान दादा साहेब फाल्के पुरस्कार और सन 2001 में देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न दिया गया.  सन 1974 में दुनिया में सबसे अधिक गीत गाने का गिनीज़ बुक रिकॉर्ड भी लता मंगेशकर के नाम है जिन्होंने अब तक 30,000 से ज्यादा गाने गाए हैं. लता मंगेशकर जी ही एकमात्र ऐसी जीवित व्यक्ति हैं जिनके नाम से पुरस्कार दिए जाते हैं.

लता मंगेशकर को एक बेहद साफ दिल इंसान माना जाता है. बॉलिवुड में उनकी छवि एक बेहद शांत गायिका की है जो सबका भला चाहती हैं और यही वजह है कि पूरा संगीत जगत एक सुर में उनकी तारीफ करता नजर आता है. वह अपनी बहन आशा भोसले के बेहद करीब मानी जाती हैं. अक्सर अफवाहों के बाजार में दोनों बहनों को एक-दूसरे का प्रतिस्पर्धी बताया जाता है पर लता मंगेशकर ने हमेशा अपनी बहन के प्रति अपना प्रेम दिखाया है. क्रिकेट भी लता मंगेशकर को बहुत प्यारा है. जब 1983 में भारत ने विश्व कप जीता था तब लता मंगेशकर ने टीम को पुरस्कार देने के लिए पैसा जमा करने के उद्देश्य से कई जगह शो किए थे और उन्हें सचिन तेंदुलकर से भी बहुत लगाव है.

लता मंगेशकर स्वर की वह वृक्ष हैं जो अपने फलों के कारण हमेशा नम्र और झुका रहता है. स्वर कोकिला लता मंगेशकर को उनके जन्मदिवस पर हार्दिक बधाइयां.

Friday, September 27, 2013

कृतज्ञ राष्ट्र शहीदे आजम -भगत सिंह को उनके जन्म दिवस पर भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है !



(ठेंगे पर सिद्धांत है ठेंगे पे आदर्श ,
वह भी भारतवर्ष था ,यह भी भारतवर्ष ,)-परस्व 

जगह -जगह पर हिंसा अब सिखलाई जाती है ,
शांति भंगियों को अब खीर  खिलाई जाती है ,
दौड़ भाग कर उनसे  हाथ मिलाया जाता है ,
बदले सेना का सर नित कटवाया जाता है ,
जनता मूर्ख बनी बैठी जब ,उसका क्यूँ न खून पियें ?
कही चमकती कोटि दीपिका ,कहीं भभकते छूंछ दिए ,
कहीं सहश्रों माल पुए की ,रही  थालियाँ पंथ निहार ,
कहीं दिनों तक भूख मारकर रहता जीवन तार -तार,
कभी बनाते ठोस नियम अपराधी पाए सिंहासन ,
कभी उन्ही पर बाण चलाते उनके खुद ही अपने जन ,
हेम मैम ने बतलाया ये राष्ट्रपुत्र की बानी है ,
करके खुद की ही निंदा फिर अपनी जाति  बखानी है ,
किये सहश्रों घोटाले फिर दिया भुभुक्षा का अधिकार ,
नहीं सुरक्षा हुई खाद्य की जन मानस कहता ललकार ,
ख़ूनी और बलात्कारी को देते हैं जो सिंहासन ,
कौन कहेगा होता है उनके अन्दर भी मानव तन ,
थे 'लाल बहादुर ' भारत के लाहौर तिरंगा फहराया ,
और 'मन्नू बाबा ' से केवल है वाच्य धर्म हमने पाया ,
निंदा करते बड़े जोर  जब कभी वाक्य बाहर आते ,
नही गिरी मेरी मुद्रा(रूपया ) बस सत्तासीन गिरे जाते ,
अन्य पार्टियों में पाते थे जो दाना ,अब यहाँ पड़े ,
सत्ता में मदमस्त झूमते सोते हैं अब खड़े -खड़े ,
रामसेतु है मिथ्यकल्पना निश दिन हैं ये दुहराते ,
उसी सेतु का चित्र खीच के शोध तलक हैं करवाते (नासा )
अब कहते मोहन परासरन ,है राम सेतु  सर्वथा सत्य ,
मालूम है उनको है प्रमाण ,हो सकता फिर कैसे असत्य ,
आर्य संस्कृति के द्योतक इस देशभूमि के हे वासी !
कर दो विरोध गर साहस है ,गर नहीं बने तुम सन्यासी ,
अनाचार को सहना भी करने जैसा घातक होता ,
प्रतिरोध नहीं करता जो रहता सदा वहीँ व्यक्ति रोता ,
उस देवतुल्य श्री भगत सिंह ने किया विरोध प्राण देकर ,
और हंसी भूमि ये मुक्तिमुग्ध हो ,उनको सदा मान देकर ,
उसी भक्ति के साधक हों हम देशभूमिहित  जिए मरें ,
गर होता कहीं अनीतिकार्य हम खुलकर सुलभ विरोध करें ,
कोटिसहश्र  नमन करता मैं भगत शहीद सा भाग्य मिले ,
नहीं चाहिए देवधूलि देशभक्ति का सौभाग्य मिले 
ये रक्त ,मांस ये मनोदशा सब देशहिताय करूँ अर्पण ,
मिटटी से अपने रखूं प्रेम भक्तो को है शतकोटि  नमन ,
लेखन हो सदा प्रेमपूरक जिसमे स्वदेश की मिले भक्ति ,
गर कभी जरूरत आन पड़े तो शस्त्र बने यह कलम शक्ति ,


प्रणेता -
डॉ धीरेन्द्र नाथ मिश्र 'धीरज '
'स्वतंत्र पत्रकार '

एक व्यंग्य लिखा था मैंने की इन्ही सबसे अर्थात आज की स्थितियों से क्षुब्ध होकर ही शायद शहीदे आजम भगत सिंह की आत्मा ने कहा था -
वीर भगत तुम कभी न लेना काया भारतवासी की ,
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की ,

उदहारण आप सबके सामने है -
हंस यहाँ भूखे मर रहे हैं बगुले कर रहे हैं राज 
ऐसे भारत देश पर हम करते हैं नाज ,
हम करते हैं नाज कोई जाबांज नहीं है ,
कल की जैसी बात देखिये आज नही है ,
देखिये ये मित्र देश करते रहेंगे विध्वंश ,
और आप चुनते रहियेगा अपना नेता कंश ,

( उपर्युक्त दोनों काव्य केवल व्यंग्य हैं कृपया इन्हें देश से जोड़कर न देखें ! मेरा तात्पर्य केवल अनीति ,अन्याय ,अनाचार युक्त देश से है ,आर्यावर्त भारत से नहीं ! क्यूंकि इससे अच्छी और उपयुक्त जन्भूमि नहीं हो सकती ,भारत के सन्दर्भ में कश्मीर पर कही गयी ये लाइनें  काबिले गौर हैं - "गर फिरदौस जमी असतो, अमी असतो! अमी असतो !!
"अगर दुनिया में कहीं स्वर्ग है तो यही है ! यही है !! 


 

Friday, September 20, 2013

आज प्रातः इण्डियन एक्सप्रेस समूह द्वारा  पूर्व सेना प्रमुख जनरल वी. के. सिंह पर गंभीर आरोप सामने आये हैं , आइये देखते हैं इनका व्यक्तित्व -
 
इनके पिता जी भारतीय सेना में कर्नल थे ,
इनके दादा जी सेना में ही  Junior Commissioned Officer  थे ,
ये तीसरी पीढ़ी  से थे जो भारतीय सेना में अपनी उत्कृष्ट सेवाएँ दे के गये ,
इन्होने भारत -पाकिस्तान युद्ध १९७१ में अपनी उत्कृष्ट सेवा  दी ,
इन्होने आपरेशन -पवन ,पराक्रम ,में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई ,
पाकिस्तान ,बांग्लादेश ,और  अन्यान्य देशों के साथ युद्ध में इनका विशेष नेतृत्व व योगदान रहा ,
इनकी उत्कृष्ट सेवा के लिए इन्हें युद्ध सेवा मैडल ,अति विशिष्ट सेवा मैडल ,परम विशिष्ट सेवा मैडल अन्य पुरस्कारों से सम्मानित  किया गया। 
बाकी एक सच्चे देशभक्त सिपाही का परिचय कराना सूरज को दिया दिखाने जैसा ही है ,अब  आप खुद बताएं कि  जो आनुवंशिक वीरता की प्रथा को आगे बढ़ा रहा हो उस पर ये आरोप कितने उचित हैं?????
यहाँ घोटालों के बादशाह सरकारी कुर्सी तोड़ रहें हैं और देशभक्तों को जेल में डालने की योजना बन रही है ,


आइये देखते हैं सी. बी.आई और भारत सरकार की नजर में देशभक्त कौन है ?
१ सोनिया गाँधी ,
२ राहुल गाँधी ,
३ प्रियंका और राबर्ट 
४ कलमाड़ी ,
५  राजा ,
६ सलमान खुर्शीद सपत्नीक ,
७ कपिल सिब्बल ,
८ ए. के. एंटनी ,
 ९ शरद पवार ,
१० पी चिदम्बरम ,
११ सुशील  शिंदे ,
१२ मनमोहन सिंह ,
१३ मुलायम सिंह यादव ,
१४ मायावती ,
१५ इशरत जहाँ ,
१६ अफजल  ,आदि 

अब आप खुद अनुमान लगा लीजिये की इनकी नजर में देशद्रोही कौन है ??????????/

आपकी प्रतिक्रिया का आकांक्षी -
डॉ. धीरेन्द्र  नाथ मिश्र 'धीरज '
'स्वतन्त्र पत्रकार '



Thursday, September 19, 2013

आप समस्त परम आदरणीयों / मित्रों को टिपण्णी  के लिए प्रभूत आभार !
एक बात जो  काबिले गौर  है दुनिया के हर धर्म ,हर मजहब ,हर जाति के लिए मैं  कहना चाहता हूँ कि.……
हर जाति  में  ऐसे महापुरुष / विशिष्ट  व्यक्तित्व  हुए हैं जिनसे प्रेरणा ली जा  सकती है और उन्हें आदर्श बनाया जा सकता है ,इनके उपदेशों और व्यक्तित्व अनुसरण से स्वोत्थान किया जा सकता है , अपना मानसिक उत्थान किसी भी तरीके के आरक्षण और जातिगत राजनीति को कम कर देगा।  और जैसा की आप सबों ने राय व्यक्त की कि ये केवल राजनीति साधने के लिए जीवित है ,अन्यथा ये कब का ख़त्म हो गया होता ,केवल और केवल मानसिक रूप से शशक्त होने की आवश्यकता है हमें ,विश्वास करिए हम दुनिया में किसी से पीछे नहीं होंगे ,फिर  आपस में भी कोई वैमनस्यता नहीं रह जायेगी  और मानसिक उत्थान के लिये किसी के सहारे या धन की आवश्यकता नहीं होती इसके लिए पुस्तकें और विशिष्ट व्यक्तित्व ही पर्याप्त हैं ,सीखिए जितना भी सीखना हो ,अथाह समुद्र है आपके समक्ष ज्ञान रुपी ,पान कर लीजिये जितना भी करना हो क्यूंकि कल आपको इसे बांटना है ,सिखाना है दूसरों को कि  भारतवर्षोंन्नति कैसे हो सकती है   ………………………
जय माँ भारती !
वन्दे वेद मातरम !
आज के दिन ही १९ सितम्बर १९९० को राजीव गोस्वामी ( देशबन्धु कॉलेज , दिल्ली विश्वविद्यालय ) ने मंडल कमीशन के आरक्षण प्रस्ताव का विरोध करते हुए आत्मदाह का प्रयास किया , कालान्तर  में ये छात्रसंघ  के अध्यक्ष बने  और अन्ततोगत्वा स्वास्थ्य सम्बन्धी इन्ही समस्याओं के कारण  २४ फ़रवरी  २००४ को इनकी  मृत्यु हो गयी। विनम्र और भावभीनी श्रद्धान्जलि राजीव गोस्वामी को !!!!!
स्थिति क्यूँ ऐसी ही बनी हुयी है की आजादी के लम्बे अरसे के बाद भी हम आरक्षण की वैशाखी को कमजोरी बनाए हुए हैं ?
क्या आरक्षण जातिगत होना चाहिए या फिर आर्थिक आधार पर या होना ही नहीं चाहिए ?????
मुझे तो काफी हद तक ये लगता है की आरक्षण भी एक सशक्त कारण है जातिगत भेदभाव का ,विभिन्न जातियों की बार -बार ये महसूस कराने का कि  वो कौन सी जाति  से हैं ??????
आजकल बहुतायत राजनीतिक दल इन्ही जातिगत तवों पर  सेंक रहें हैं और उस जातिगत रोटी पर दंगे आदि का घी लगा कर चाव से खा भी रहे हैं ………………गौरतलब रहे की ये मात्र जातिगत भेदभाव ही नहीं पैदा कर रहे वरन इन्सानियत का भी  आये दिन खून कर रहे हैं , और इन सबके पीछे जितने गुनाहगार ये सब हैं उतने ही हम आप भी क्यूंकि इन्हें जनता का भी मुखर या फिर मौन समर्थन प्राप्त होता है !
तो देते रहिये समर्थन करते रहिये भारत निर्माण !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!


दुश्मनी का पेड़ गुलशन में लगा कर क्या करें ?
अपने ही घर में दीवारें उठाकर क्या करें ?
नींव में जिसके भरा जाए लहू इंसान का ,
ऐसे मन्दिर ,मस्जिदों को हम बनाकर क्या करें ?????????????


आप सबकी राय का आकांक्षी …………

डॉ. धीरेन्द्र  नाथ मिश्र  'धीरज '
'स्वतन्त्र पत्रकार '

Tuesday, September 17, 2013

बात कभी भी जब देशप्रेम की हो तो अनायास ही राष्ट्रकवि सर्वश्री  मैथिलीशरणशरण  गुप्त की स्मृतियाँ मुखर हो जाती हैं ,ऐसे में उनका काव्य देशप्रेम की अद्भुत मिशाल देता है 

आर्य -मैथिलीशरण गुप्त

हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी
भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है
यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं
विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं
संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े
पर चिन्ह उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े
वे आर्य ही थे जो कभी, अपने लिये जीते न थे
वे स्वार्थ रत हो मोह की, मदिरा कभी पीते न थे
वे मंदिनी तल में, सुकृति के बीज बोते थे सदा
परदुःख देख दयालुता से, द्रवित होते थे सदा
संसार के उपकार हित, जब जन्म लेते थे सभी
निश्चेष्ट हो कर किस तरह से, बैठ सकते थे कभी
फैला यहीं से ज्ञान का, आलोक सब संसार में
जागी यहीं थी, जग रही जो ज्योति अब संसार में
वे मोह बंधन मुक्त थे, स्वच्छंद थे स्वाधीन थे
सम्पूर्ण सुख संयुक्त थे, वे शांति शिखरासीन थे
मन से, वचन से, कर्म से, वे प्रभु भजन में लीन थे
विख्यात ब्रह्मानंद नद के, वे मनोहर मीन थे

दोनों ओर प्रेम पलता है -मैथिलीशरण गुप्त

दोनों ओर प्रेम पलता है।
सखि, पतंग भी जलता है हा! दीपक भी जलता है!

सीस हिलाकर दीपक कहता--
’बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’
पर पतंग पड़ कर ही रहता

कितनी विह्वलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।

बचकर हाय! पतंग मरे क्या?
प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या?
जले नहीं तो मरा करे क्या?

क्या यह असफलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।

कहता है पतंग मन मारे--
’तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे,
क्या न मरण भी हाथ हमारे?

शरण किसे छलता है?’
दोनों ओर प्रेम पलता है।

दीपक के जलनें में आली,
फिर भी है जीवन की लाली।
किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली,

किसका वश चलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।

जगती वणिग्वृत्ति है रखती,
उसे चाहती जिससे चखती;
काम नहीं, परिणाम निरखती।

मुझको ही खलता है।
दोनों ओर प्रेम पलता है।

भारत माता का मंदिर यह -मैथिलीशरण गुप्त

भारत माता का मंदिर यह
समता का संवाद जहाँ,
सबका शिव कल्याण यहाँ है
पावें सभी प्रसाद यहाँ ।

जाति-धर्म या संप्रदाय का,
नहीं भेद-व्यवधान यहाँ,
सबका स्वागत, सबका आदर
सबका सम सम्मान यहाँ ।
राम, रहीम, बुद्ध, ईसा का,
सुलभ एक सा ध्यान यहाँ,
भिन्न-भिन्न भव संस्कृतियों के
गुण गौरव का ज्ञान यहाँ ।

नहीं चाहिए बुद्धि बैर की
भला प्रेम का उन्माद यहाँ
सबका शिव कल्याण यहाँ है,
पावें सभी प्रसाद यहाँ ।

सब तीर्थों का एक तीर्थ यह
ह्रदय पवित्र बना लें हम
आओ यहाँ अजातशत्रु बन,
सबको मित्र बना लें हम ।
रेखाएँ प्रस्तुत हैं, अपने
मन के चित्र बना लें हम ।
सौ-सौ आदर्शों को लेकर
एक चरित्र बना लें हम ।

बैठो माता के आँगन में
नाता भाई-बहन का
समझे उसकी प्रसव वेदना
वही लाल है माई का
एक साथ मिल बाँट लो
अपना हर्ष विषाद यहाँ
सबका शिव कल्याण यहाँ है
पावें सभी प्रसाद यहाँ ।

मिला सेव्य का हमें पुज़ारी
सकल काम उस न्यायी का
मुक्ति लाभ कर्तव्य यहाँ है
एक एक अनुयायी का
कोटि-कोटि कंठों से मिलकर
उठे एक जयनाद यहाँ
सबका शिव कल्याण यहाँ है
पावें सभी प्रसाद यहाँ ।

मातृभूमि -मैथिलीशरण गुप्त

नीलांबर परिधान हरित तट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है॥
नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं।
बंदीजन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है॥

करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की।
हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की॥

जिसके रज में लोट-लोट कर बड़े हुये हैं।
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुये हैं॥
परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये।
जिसके कारण धूल भरे हीरे कहलाये॥

हम खेले-कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातृभूमि! तुझको निरख, मग्न क्यों न हों मोद में?

पा कर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा।
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है।
बस तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है॥

फिर अन्त समय तू ही इसे अचल देख अपनायेगी।
हे मातृभूमि! यह अन्त में तुझमें ही मिल जायेगी॥

निर्मल तेरा नीर अमृत के से उत्तम है।
शीतल मंद सुगंध पवन हर लेता श्रम है॥
षट्ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भुत क्रम है।
हरियाली का फर्श नहीं मखमल से कम है॥

शुचि-सुधा सींचता रात में, तुझ पर चन्द्रप्रकाश है।
हे मातृभूमि! दिन में तरणि, करता तम का नाश है॥

सुरभित, सुन्दर, सुखद, सुमन तुझ पर खिलते हैं।
भाँति-भाँति के सरस, सुधोपम फल मिलते है॥
औषधियाँ हैं प्राप्त एक से एक निराली।
खानें शोभित कहीं धातु वर रत्नों वाली॥

जो आवश्यक होते हमें, मिलते सभी पदार्थ हैं।
हे मातृभूमि! वसुधा, धरा, तेरे नाम यथार्थ हैं॥

क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है।
सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है॥
विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुःखहर्त्री है।
भय निवारिणी, शान्तिकारिणी, सुखकर्त्री है॥

हे शरणदायिनी देवि, तू करती सब का त्राण है।
हे मातृभूमि! सन्तान हम, तू जननी, तू प्राण है॥

जिस पृथ्वी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे।
उससे हे भगवान! कभी हम रहें न न्यारे॥
लोट-लोट कर वहीं हृदय को शान्त करेंगे।
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे॥

उस मातृभूमि की धूल में, जब पूरे सन जायेंगे।
होकर भव-बन्धन- मुक्त हम, आत्म रूप बन जायेंगे॥

Sunday, September 15, 2013

दादासाहब फाल्के से सम्मानित  बॉलीवुड अभिनेता दिलीप कुमार को दिल का दौरा पड़ने के बाद अस्‍पताल में भर्ती कराया गया है. डॉक्‍टर लगातार उनकी सेहत पर नजर रख रहे हैं. उनकी हालत फिलहाल स्थिर है.
दिलीप कुमार ने रविवार रात को सीने में दर्द की‍ शिकायत की. इसके बाद परिजनों ने उन्‍हें मुंबई स्थित लीलावती अस्‍पताल  के आईसीयू में भर्ती करवाया। 
दिलीप कुमार के जीवन पर एक नजर...
'मुगले आजम', 'मधुमती', 'देवदास' और 'गंगा जमुना' जैसी बेहतरीन फिल्मों में अपने यादगार अभिनय के लिए याद किये जाने वाले दिलीप कुमार गत दिसंबर को 90 वर्ष के हुए थे। 
दिलीप कुमार का मूल नाम मुहम्मद युसूफ खान है. उनका जन्म पेशावर में 11 दिसंबर, 1922 को हुआ था. उन्होंने छह दशक में 60 से ऊपर फिल्मों में काम किया. उन्हें सर्वोत्तम अभिनेता का पहला फिल्मफेयर पुरस्कार 1954 में मिला. वे इस श्रेणी में कुल 8 बार यह पुरस्कार हासिल कर चुके हैं. यही रिकार्ड शाहरुख खान के नाम भी है।
दिलीप कुमार को 1991 में पद्मभूषण और 1994 में दादासाहब फाल्के पुरस्कार दिया गया. वे 2000 से 2006 तक राज्यसभा के सदस्य मनोनीत किये गये थे। 

दिलीप कुमार का इलाज कर रहे डॉक्‍टरों ने परिजनों को बताया कि उन्‍हें हार्ट अटैक हुआ है. दिलीप कुमार अभी कॉन्‍शस हैं, उन्‍हें वेंटिलेटर पर नहीं रखा गया है. वे 90 साल से अधिक के हैं, इस लिहाज से आने वाले 48 से 72 घंटे उनके लिए बेहद अहम है।  आइये  ईश्वर से प्रार्थना करते हैं  की वो दिलीप जी को शीघ्र स्वस्थ व दीर्घायु बनायें। 


Saturday, September 14, 2013

आज अपनी मातृभाषा को याद करने का दिन है लेकिन मुझे पता नहीं क्यूँ ऐसा लगता है की हिंदी को याद करने के लिए एक विशेष दिन की नहीं बल्कि हर दिन की जरूरत है ठीक वैसे ही जैसे प्रेम के लिए दिवस विशेष की जरूरत नहीं होनी चाहिए वैसे ही भाषा के लिए भी …… मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ की हिंदी आज केवल तिरस्कार और अपमान पा रही है और यथार्थ यह है की हिंदी की इस पीड़ा को समझने वाला कोई नहीं है।  हर वर्ष 14 सितंबर को देश में हिन्दी दिवस मनाया जाता है. यह मात्र एक दिन नहीं बल्कि यह है अपनी मातृभाषा को सम्मान दिलाने का दिन. उस भाषा को सम्मान दिलाने का जिसे लगभग तीन चौथाई हिन्दुस्तान समझता है, जिस भाषा ने देश को स्वतंत्रता दिलाने में अहम भूमिका निभाई. उस हिन्दी भाषा के नाम यह दिन समर्पित है जिस हिन्दी ने हमें एक-दूसरे से जुड़ने का साधन प्रदान किया. लेकिन क्या हिन्दी मर चुकी है या यह इतने खतरे में है कि हमें इसके लिए एक विशेष दिन समर्पित करना पड़ रहा है?

अभी तीन -चार दिन  पहले की बात है ,मैं अपने कार्यालय  में था कहीं से फोन आया की आपसे बात करनी है ,मेरा मन थोडा हास -परिहास का था अतः मैंने कहा की  "कृपया आङ्ग्ल भाषा का प्रयोग न करें  मुझे आती नहीं ! कृपया देवनागरी में वार्ता करें " प्रतिक्रिया इतनी विचित्र थी कि  क्या कहूँ ……………  अगले ने अप्रत्याशित तरीके से वार्ता समाप्त कर दी ,और न केवल समाप्त कर दी बल्कि मुझपे क्रुद्ध भी ! अब आप समझ सकते हैं की ये प्रतिक्रिया क्या थी ये केवल हमारी मातृभाषा के लिए नहीं थी ,इसका सीधा सा आशय था की 'ये कैसा ठेठ ,गँवार  है की इसे आङ्ग्ल भाषा नहीं आती ' निष्कर्षरूपेण आज आधुनिकता के चोंगे में केवल वहीं सभ्य और शिक्षित है जो हिंदी का कम से कम प्रयोग करता हो।  लेकिन मेरा विद्रोही मन इस बात को कदापि नहीं  करता क्यूंकि मैं सदैव अपनी हिंदी /संस्कृत को वरीयता देता हूँ।  और दूं क्यूँ न इसका कारण भी है और तर्क भी - जब विदेशी हमारे देश में आकर अपनी भाषा बोल सकते हैं तो हम अपनी भाषा क्यूँ न बोले क्या ऐसा संभव  है की अंग्रेजी का ज्ञान रखने वाला हिंदी वाले से अधिक विद्वान हो जाएगा ? क्या चाणक्य विद्वान् नहीं थे या फिर सुश्रुत ,चरक ,श्रीकृष्ण,महर्षि कणाद ,आर्यभट्ट,भाष्कर आदि ? उदहारण के लिए अटल बिहारी बाजपेयी जी को ही ले लीजिये वो संयुक्तराष्ट्रसंघ में आङ्ग्ल भाषा का भी प्रयोग कर सकते थे भारत के अनेक प्रधानमंत्रियों की तरह लेकिन उन्हें देवनागरी का प्रयोग श्रेयस्कर लगा। 

आज 'हिंदी दिवस ' जैसा दिन मात्र एक औपचारिकता बन कर रह गया है. लगता है जैसे लोग गुम हो चुकी अपनी मातृभाषा के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं वरना क्या कभी आपने चीनी दिवस या फ्रेंच दिवस या अंग्रेजी दिवस के बारे में सुना है. हिन्दी दिवस मनाने का अर्थ है गुम हो रही हिन्दी को बचाने के लिए एक प्रयास.
हिन्दी हमारी मातृभाषा है. जब बच्चा पैदा होता है तो वह पेट से ही भाषा सीख कर नहीं आता. भाषा का पहला ज्ञान उसे आसपास सुनाई देनी वाली आवाजों से प्राप्त होता है और भारत में अधिकतर घरों में बोलचाल की भाषा हिन्दी ही है. ऐसे में भारतीय बच्चे हिन्दी को आसानी से समझ लेते हैं.

हमारे एक मित्र आज बता रहे थे की उन्होंने अपने बच्चे के प्रधानाध्यापक से शिकायत करी की बच्चे को तीन साल हो गये स्कूल जाते लेकिन उसे हिंदी नहीं आती उधर से जवाब आया की साहब ये हिंदी नहीं आङ्ग्ल भाषा का स्कूल है अगर हिंदी सिखानी थी तो गाँव के प्राइमरी में ही सिखा लेते ! छोटे बच्चे को सभी घर में तो हिन्दी में बात करके समझाते और सिखाते हैं लेकिन जैसे ही वह तीन या चार साल का होता है उसे प्ले स्कूल या नर्सरी में भेज दिया जाता है और यहीं से शुरू होती है अंग्रेजी भाषा की पढ़ाई. बचपन से हिन्दी सुनने वाले बच्चे के कोमल दिमाग पर अंग्रेजी भाषा सीखने का दबाव डाला जाता है. पहली और दूसरी कक्षा तक आते-आते तो कई स्कूलों में शिक्षकगण बच्चे को समझाने के लिए भी अंग्रेजी भाषा का ही इस्तेमाल करते हैं. अंग्रेजी को स्कूलों में इस तरह पढ़ाया जाता है जैसे यह हमारी राष्ट्रभाषा हो और यही हमें दाना-पानी देगी.

कहना न होगा की हमारे आपके शिक्षाकाल से अभी तक में इतना अंतर आ गया है की जितनी किताबें हम पूरे महीने में लेके जाते थे उतनी आज के बच्चे एक बार में ,तब भी आलम यह है की हिंदी में ही सबसे कम अंक आते हैं उनके। कभी अपने काम से फुरसत मिले तो बच्चे का स्कूल बैग देखिये की बच्चा कितने साल का है और उसका बैग कितना भारी  है ???वहीं दूसरी ओर जिन बच्चों को अंग्रेजी सीखने में दिक्कत आती है और वह इसमें कमजोर रह जाते हैं उन्हें गंवार समझा जाता है. हालात तो यह है कि आज कॉरपोरेट और व्यापार श्रेणी में लोग हिन्दी बोलने वाले को गंवार समझते हैं. एक कंप्यूटर प्रोग्रामर को चाहे कितनी ही अच्छी कोडिंग और प्रोग्रामिंग आती हो लेकिन अगर उसकी अंग्रेजी सही नहीं है तो उसे दोयम दर्जे का माना जाता है.
आज देश में हिन्दी के हजारों न्यूज चैनल और अखबार आते हैं लेकिन जब बात प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान की होती है तो उनमें अव्वल दर्जे पर अंग्रेजी चैनलों को रखा जाता है. बच्चों को अंग्रेजी का विशेष ज्ञान दिलाने के लिए अंग्रेजी अखबारों को स्कूलों में बंटवाया जाता है लेकिन क्या आपने कभी हिन्दी अखबारों को स्कूलों में बंटते हुए देखा है.

आज जब युवा पढ़ाई पूरी करके इंटरव्यू में जाते हैं तो अकसर उनसे एक ही सवाल किया जाता है कि क्या आपको अंग्रेजी आती है? बहुत कम जगह हैं जहां लोग हिन्दी के ज्ञान की बात करते हैं.

बात सिर्फ शैक्षिक संस्थानों तक सीमित नहीं है. जानकारों की नजर में हिन्दी की बर्बादी में सबसे अहम रोल हमारी संसद का है. भारत आजाद हुआ तब हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की आवाजें उठी लेकिन इसे यह दर्जा नहीं दिया गया बल्कि इसे मात्र राजभाषा बना दिया गया. राजभाषा अधिनियिम की धारा 3 के तहत यह कहा गया कि सभी सरकारी दस्तावेज और निर्णय अंग्रेजी में लिखे जाएंगे और साथ ही उन्हें हिन्दी में अनुवादित कर दिया जाएगा. जबकि होना यह चाहिए था कि सभी सरकारी आदेश और कानून हिन्दी में ही लिखे जाने चाहिए थे और जरूरत होती तो उन्हें अंग्रेजी में बदला जाता.

सरकार को यह समझने की जरूरत है हिन्दी भाषा सबको आपस में जोड़ने वाली भाषा है तथा इसका प्रयोग करना हमारा संवैधानिक एवं नैतिक दायित्व भी है. अगर आज हमने हिन्दी को उपेक्षित करना शुरू किया तो कहीं एक दिन ऐसा ना हो कि इसका वजूद ही खत्म हो जाए. समाज में इस बदलाव की जरूरत सर्वप्रथम स्कूलों और शैक्षिक संस्थानों से होनी चाहिए. साथ ही देश की संसद को भी मात्र हिन्दी पखवाड़े में मातृभाषा का सम्मान नहीं बल्कि हर दिन इसे ही व्यवहारिक और कार्यालय की भाषा बनानी चाहिए। 

मातृभाषा प्रेम  पर दोहे /भारतेंदु हरिश्चन्द्र 

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।

अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।

उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय ।

निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय
लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय ।

इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग ।

और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात ।

तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय ।

विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।

भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात ।

सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय ।

भारतेन्दु  हरिश्चन्द्र जी की भाषा अनुराग भावना को सादर नमन !
और मातृभाषा हिंदी को -कोटि कोटि नमन !!!!!!!!

भवद्भावी -
डॉ. धीरेन्द्र नाथ मिश्र 'धीरज '
'स्वतंत्र पत्रकार '





Thursday, September 12, 2013

नारद शिक्षा अनुसार साम के स्वर मंडल इतने हैं ,
७ स्वर , ३ ग्राम ,२१ मूर्छना ,४९ तान , इन सात स्वरों की तुलना वेणु स्वर से इस प्रकार है ,

१ प्रथम                                     मध्यम /म
२ द्वितीय                                गांधार /ग
३ तृतीय                                    ऋषभ /रे
४ चतुर्थ                                     षड्ज /सा
५ पञ्चम                                  निषाद /नि
६ षष्ठ                                     धैवत /ध
७ सप्तम                                 पञ्चम / प

साम गानों में ये ही सात तक के अङ्क  तत्तत स्वरों के स्वरुप को सूचित करने के लिए लिखे जाते हैं। 

Wednesday, September 11, 2013

तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या
- महादेवी वर्मा (Mahadevi Verma)
तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या
तारक में छवि, प्राणों में स्मृति
पलकों में नीरव पद की गति
लघु उर में पुलकों की संसृति
भर लाई हूँ तेरी चंचल
और करूँ जग में संचय क्या!
तेरा मुख सहास अरुणोदय
परछाई रजनी विषादमय
वह जागृति वह नींद स्वप्नमय
खेलखेल थकथक सोने दे
मैं समझूँगी सृष्टि प्रलय क्या!
तेरा अधर विचुंबित प्याला
तेरी ही स्मित मिश्रित हाला,
तेरा ही मानस मधुशाला
फिर पूछूँ क्या मेरे साकी
देते हो मधुमय विषमय क्या!
रोमरोम में नंदन पुलकित
साँससाँस में जीवन शतशत
स्वप्न स्वप्न में विश्व अपरिचित
मुझमें नित बनते मिटते प्रिय
स्वर्ग मुझे क्या निष्क्रिय लय क्या!
हारूँ तो खोऊँ अपनापन
पाऊँ प्रियतम में निर्वासन
जीत बनूँ तेरा ही बंधन
भर लाऊँ सीपी में सागर
प्रिय मेरी अब हार विजय क्या!
चित्रित तू मैं हूँ रेखाक्रम
मधुर राग तू मैं स्वर संगम
तू असीम मैं सीमा का भ्रम
काया छाया में रहस्यमय
प्रेयसि प्रियतम का अभिनय क्या!
तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या
हमारे प्रयाग की महानतम विभूतियों में से एक प्रकृति एवं जीवमात्र (पशु ,पक्षी आदि )से स्नेह रखने वाली महीयसी महादेवी वर्मा की पुण्य तिथि पर उनका स्मरण !

जाग तुझको दूर जाना

चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!
जाग तुझको दूर जाना!

अचल हिमगिरि के हॄदय में आज चाहे कम्प हो ले!
या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले;
आज पी आलोक को ड़ोले तिमिर की घोर छाया
जाग या विद्युत शिखाओं में निठुर तूफान बोले!
पर तुझे है नाश पथ पर चिन्ह अपने छोड़ आना!
जाग तुझको दूर जाना!

बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले?
पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले?
विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डुबो देंगे तुझे यह फूल दे दल ओस गीले?
तू न अपनी छाँह को अपने लिये कारा बनाना!
जाग तुझको दूर जाना!

वज्र का उर एक छोटे अश्रु कण में धो गलाया,
दे किसे जीवन-सुधा दो घँट मदिरा माँग लाया!
सो गई आँधी मलय की बात का उपधान ले क्या?
विश्व का अभिशाप क्या अब नींद बनकर पास आया?
अमरता सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना?
जाग तुझको दूर जाना!

कह न ठंढी साँस में अब भूल वह जलती कहानी,
आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी;
हार भी तेरी बनेगी माननी जय की पताका,
राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी!
है तुझे अंगार-शय्या पर मृदुल कलियां बिछाना!
जाग तुझको दूर जाना! 

जो तुम आ जाते एक बार

कितनी करूणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग
गाता प्राणों का तार तार
अनुराग भरा उन्माद राग

आँसू लेते वे पथ पखार
जो तुम आ जाते एक बार

हंस उठते पल में आर्द्र नयन
धुल जाता होठों से विषाद
छा जाता जीवन में बसंत
लुट जाता चिर संचित विराग

आँखें देतीं सर्वस्व वार
जो तुम आ जाते एक बार 

 

Friday, September 6, 2013

सत्यमेव विजयते !

हमारे लोकतन्त्र  के चौथे स्तम्भ मीडिया की दुर्दशा देखकर मन बड़ा क्षुब्ध हो गया है।
जब जो करना चाहिए ,जब जो कहना चाहिए के एकदम उलट चल रहे मीडिया का रुख दिनोंदिन बदतर होता जा रहा है ,देशहित /राष्ट्रहित  में जब जो बोलना चाहिए वह भी कोई और तय कर रहा है हमारे कलम के सिपाहियों के लिए……………………आप सब साक्षी हैं इसके कि  चीन और पाकिस्तान की घिनौनी हरकतें दिनों-दिन बढती जा रही हैं , देश में भ्रष्टाचार ,हत्या ,बलात्कार  की घटनाओं में दिन-प्रतिदिन इजाफा हो रहा है ,हमारी अर्थव्यवस्था कोमा में है ……………………… बजाय इसके हमारी मीडिया का मुख्य विषय -मोदी,काला जादू ,और भारत निर्माण है।
क्या कहेंगे आप? मैं मीडिया के सर्वोच्च संस्थान का अंग रहा हूँ ,लेकिन मैंने क्या- क्या देखा ?क्या -क्या  सुना ये वर्णन करने योग्य नहीं है ,भ्रष्टाचार और अनाचार की जड़ें इस हद तक  गहराई में जा चुकीं हैं की इसे चाहकर भी उखाड़ना मुश्किल सा होता जा रहा है ,और हो भी क्यूँ न ,कोई सम्मिलित तरीके से कुछ करना ही नहीं चाहता है ,बात अगर देश की भी होगी तब भी हर किसी के मन में श्रेय का चित्रण होता रहता है ,हर कोई अपना -अपना राग अलाप रहा है लेकिन परिणाम सिफर  है …. इसी क्रम में अन्ना हजारे जी ने एक ठोस पहल करी जिसके फलस्वरूप उन्हें व्यापक जनसमर्थन मिला ,लेकिन अत्यंत ही दुःख का विषय है की वह आन्दोलन भी अलग-थलग  पड़  गया और राजनीति की भेंट चढ़ गया कालान्तर में उस राजनीति के बीजान्कुरण से अरविन्द केजरीवाल ,डॉ विश्वास ,मनीष सिसौदिया जैसी कपोलें निकली जो अब उन्ही पार्टियों के साथ चुनाव लड़ने की बात कर रहें हैं जिसके वे धुर विरोधी कहे जाते थे (क्यूंकि उनकी नज़र में अब वो शायद भ्रष्ट नहीं रहीं )…………………….

खैर मुख्य विषय पर आते हैं मीडिया में भी मैंने  इतना भ्रष्टाचार और शोषण देख लिया (२००२ से आज तक भर में )  कि आज पूरे होशोहवास  में मैं डॉ. धीरेन्द्र नाथ मिश्र अपने समस्त वैतनिक -अवैतनिक  पदों से त्यागपत्र देता हूँ।
और यह शपथ भी लेता हूँ की जब तक जियूँगा अपने देश के लिए कलम की लड़ाई लड़ता रहूँगा  ,मैं हमेशा स्वतन्त्र लेखन करता रहूँगा और अपनी कलम की धार को इतना पैना कर दूँगा की शायद मेरी मुहिम कुछ काम आ सके मेरे देश के ।  वो कहते हैं न कि.……….
सहादत से आदत एवादत से इल्म ,
हुकूमत है दौलत है ताक़त  है इल्म,
जाके पूँछो किसी मर्द मुख्तार से ,
कलम तेज चलती है तलवार से ,
आप सबके मार्गदर्शन एवं स्नेह का सदा आकांक्षी रहूँगा। प्रयास यही होगा की देशहित सर्वोपरि हो !
हम रहें न रहें यह देश रहे।
जय माँ  भारती ! वन्दे मातरम।
(मेरे कथन का केन्द्र  केवल भ्रष्ट लोग हैं ,मीडिया और उसके बाहर के कलम के वीर सिपाहियों की वंदना में मेरा शीश सदैव नतमस्तक रहेगा।  )


Thursday, September 5, 2013

आज शिक्षक दिवस के पावन  पुनीत अवसर पर माता-पिता  जी के अनन्तर जो नाम मैं स्मरण करना चाहूँगा उनमे  प्रोफ़ेसर लक्ष्मीराज शर्मा   (इ. वि.वि.),श्री ब्रह्मदत्त मिश्र ,प्रोफ़ेसर शंकर दयाल द्विवेदी (इ.वि.वि.),प्रोफ़ेसर हरिदत्त शर्मा  (इ. वि.वि.),प्रोफ़ेसर के के श्रीवास्तव  (इ. वि.वि.),प्रोफ़ेसर चण्डिका प्रसाद शुक्ल (बी.एच. यू.) और यहाँ फेसबुक की दुनिया में प्रोफ़ेसर हेमलता श्रीवास्तव ,प्रोफ़ेसर अरुण श्रीवास्तव ,डॉ गीता त्रिपाठी जी ,आदरणीय हुकुम सिंह जी ,प्रोफ़ेसर अमलदार नीहार जी ,एवं अनगिनत ऐसे गुरुवर जिनकी मैं व्याख्या नहीं कर सका उनका ह्रदय से आभारी हूँ ,की उन्होंने मेरे में ऐसे संस्कार प्रेषित किये जिससे मैं सभ्य समाज का अङ्ग बन सकूँ। 

मेरे इन्ही गुरुओं में एक नाम परम आदरणीय श्री शेष नारायण जी मिश्र का भी है ,जिन्होंने मुझे हमेशा एक अनुज की तरह शिक्षित किया और मुझे मनसा ,वाचा,कर्मणा सदैव सफल और उपकारी होने की प्रेरणा दी। 
प्रतिभा जैसा की आप जानते हैं दो प्रकार की होती है - १ -जन्मजात एवं दूसरी अर्जित की हुयी (श्रम व् शिक्षा द्वारा ) ये 'जन्मनाजायते ' वाली प्रतिभा के धनी  हैं ,मेरी जानकारी में इनसे हजारों -हजार विद्यार्थियों ने शिक्षा ली होगी लेकिन इन्होने कभी किसी से धनार्जन नहीं किया और न ही किसी तरह का स्वार्थ रखा वह भी ऐसे समय में जब ये भी शोधार्थी थे (अर्थात अध्ययन ही कर रहे थे नौकरी नहीं !),अध्ययन ,अध्यापन के अतिरिक्त और कोई शौक मैंने इनके अन्दर मुखर होते हुए नहीं देखा , विशिष्ट बात यह भी है की जरूरत पड़ने पर इन्होंने  कई छात्रों की आर्थिक सहायता भी करी ,मैं भी ऐसे छात्रों में से एक हूँ ……
 माता -पिता , और शिक्षक का प्रतिदान कोई भी नहीं दे सकता ,जन्म जन्मान्तर तक नहीं !!!!!!!

आप सबको कोटि कोटि नमन !!!!

Wednesday, September 4, 2013


शिक्षक दिवस(5 सितंबर) – 

ऐसे समस्त गुरुओं को कोटि-कोटि नमन जिनसे हमने प्रत्यक्ष -अप्रत्यक्ष  शिक्षा ली !
जिन्होंने हमें इस योग्य बनाया की हम समाज में बैठ -बोल सकें !
जिन्होंने मोमबत्ती की तरह खुद जलकर हमें प्रकाशित किया !
जिन्होंने अपनी महत्त्वपूर्ण उर्जा हम पर  लगाई जब तक वह खुद संतुष्ट नहीं हो गये की हम इस लायक हो गये हैं …………चिरंतन सत्य तो यह है की गुरुजनों हम कभी आपके वास्तविक शिष्य नहीं बन सकते …
क्यूंकि देश प्रेम के जो संस्कार आपने हमें दिए थे उन्हें हम पूरा नहीं कर पा रहे ……………………. 
शिक्षक दिवस के पावन -पुनीत अवसर पर हम आपको वचन देते हैं की आपका आर्यावर्त आपके सपनों का भारत हम सब मिलकर फिर से बनाने का प्रयत्न करेंगे…………. 
"गुरु ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात परब्रह्म तस्मैः श्री गुरुवेः नमः।"

चरणचिंतकानुगामी -
-डॉ. धीरेन्द्र नाथ मिश्र 'धीरज '

गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागु पांव, बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय। कबीर दास द्वारा लिखी गई यह पंक्तियां जीवन में गुरु के महत्व को वर्णित करने के लिए काफी हैं। जीवन में माता-पिता का स्थान कभी कोई नहीं ले सकता क्योंकि वे ही हमें इस रंगीन खूबसूरत दुनिया में लाते हैं। उनका ऋण हम किसी भी रूप में उतार नहीं सकते लेकिन जिस समाज में हमें रहना है, उसके योग्य हमें केवल शिक्षक ही बनाते हैं। यद्यपि परिवार को बच्चे के प्रारंभिक विद्यालय का दर्जा दिया जाता है लेकिन जीने का असली सलीका उसे शिक्षक ही सिखाता है। समाज के शिल्पकार कहे जाने वाले शिक्षकों का महत्व यहीं समाप्त नहीं होता क्योंकि वह ना सिर्फ आपको सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं बल्कि आपके सफल जीवन की नींव भी उन्हीं के हाथों द्वारा रखी जाती है।

इसीलिए गुरु की महत्ता को समझते हुए हर वर्ष भारत में पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस यानि 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।

कच्चे घड़े की भांति स्कूल में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को जिस रूप में ढालो, वे ढल जाते हैं। वे स्कूल में जो सीखते हैं या जैसा उन्हें सिखाया जाता है वे वैसा ही व्यवहार करते हैं। उनकी मानसिकता भी कुछ वैसी ही बन जाती है जैसा वह अपने आसपास होता देखते हैं। सफल जीवन के लिए शिक्षा बहुत उपयोगी है जो हमें गुरु द्वारा प्रदान की जाती है। गुरु का संबंध केवल शिक्षा से ही नहीं होता बल्कि वह तो हर मोड़ पर आपका हाथ थामने के लिए तैयार रहता है। आपको सही सुझाव देता है और जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।

गुरु-शिष्य परंपरा भारत की संस्कृति का एक अहम और पवित्र हिस्सा है, जिसके कई स्वर्णिम उदाहरण हमारे इतिहास में दर्ज हैं। लेकिन वर्तमान समय में कई ऐसे लोग भी हैं जो अपने अनैतिक कारनामों और लालची स्वभाव के कारण इस परंपरा पर गहरा आघात कर रहे हैं। ‘शिक्षा’ जिसे अब एक व्यापार समझकर बेचा जाने लगा है, किसी भी बच्चे का एक मौलिक अधिकार है लेकिन अपने लालच को शांत करने के लिए आज तमाम शिक्षक अपने ज्ञान की बोली लगाने लगे हैं। इतना ही नहीं वर्तमान हालात तो इससे भी बदतर हो गए हैं क्योंकि शिक्षा की आड़ में कई शिक्षक अपने छात्रों का शारीरिक और मानसिक शोषण करने को अपना अधिकार ही मान बैठे हैं।

किंतु हम बात कर रहे हैं ऐसे गुरुओं की जिन्होंने हमेशा समाज के सामने एक अनुकरणीय उदाहरण पेश किया। प्राय: सख्त और अक्खड़ स्वभाव वाले यह शिक्षक अंदर से बेहद कोमल और उदार होते हैं। हो सकता है आपके जीवन में भी कभी ना कभी एक ऐसा गुरु या शिक्षक का आगमन हुआ हो जिसने आपके जीवन की दिशा बदल दी या फिर आपको जीवन जीने का सही ढंग सिखाया हो।

रोचक जानकारी

  • भारत  में जहाँ 'शिक्षक दिवस' ५ सितम्बर  को मनाया जाता है, वहीं 'अंतर्राष्ट्रीय शिक्षक दिवस' का आयोजन ५ अक्टूबर  को होता है।
  • रोचक तथ्य यह भी है कि शिक्षक दिवस दुनिया भर में मनाया जाता है, लेकिन सबने इसके लिए एक अलग दिन निर्धारित किया है। कुछ देशों में इस दिन अवकाश रहता है तो कहीं-कहीं यह कामकाजी दिन ही रहता है।
  • यूनेस्को ने 5 अक्टूबर को 'अंतर्राष्ट्रीय शिक्षक दिवस' घोषित किया था। साल १९९४ से ही इसे मनाया जा रहा है। शिक्षकों के प्रति सहयोग को बढ़ावा देने और भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए शिक्षकों के महत्व के प्रति जागरूकता लाने के मकसद से इसकी शुरुआत की गई थी।
  • चीन  में १९३१  में 'नेशनल सेंट्रल यूनिवर्सिटी' में शिक्षक दिवस की शुरूआत की गई थी। चीन सरकार ने १९३२ में इसे स्वीकृति दी। बाद में १९३९  में कन्फ्यूशियस के जन्मदिवस, २७ अगस्त  को शिक्षक दिवस घोषित किया गया, लेकिन १९५१  में इस घोषणा को वापस ले लिया गया।
  • साल १९८५ में १० सितम्बर को शिक्षक दिवस घोषित किया गया। अब चीन के ज्यादातर लोग फिर से चाहते हैं कि कन्फ्यूशियस का जन्म दिवस ही शिक्षक दिवस हो।
  • रूस  में १९६५  से १९९४ तक अक्टूबर  महीने के पहले रविवार के दिन शिक्षक दिवस मनाया जाता रहा। साल 1994 से विश्व शिक्षक दिवस ५ अक्टूबर को ही मनाया जाने लगा।
  • अमेरिका  में मई  के पहले पूर्ण सप्ताह के मंगलवार  को शिक्षक दिवस घोषित किया गया है और वहाँ सप्ताह भर इसके आयोजन होते हैं।
  • थाइलैंड में हर साल १६ जनवरी  को 'राष्ट्रीय शिक्षक दिवस' मनाया जाता है। यहाँ २१ नवम्बर १९५६  को एक प्रस्ताव लाकर शिक्षक दिवस को स्वीकृति दी गई थी। पहला शिक्षक दिवस १९५७  में मनाया गया था। इस दिन यहाँ स्कूलों में अवकाश रहता है।
  • ईरान में वहाँ के प्रोफेसर अयातुल्लाह मोर्तेजा मोतेहारी की हत्या के बाद उनकी याद में २ मई को शिक्षक दिवस मनाया जाता है। मोतेहारी की 2 मई,१९८०  को हत्या कर दी गई थी।
  • तुर्की में २४ नवम्बर  को शिक्षक दिवस मनाया जाता है। वहाँ के पहले राष्ट्रपति  कमाल अतातुर्क ने यह घोषणा की थी।
  • मलेशिया  में शिक्षक दिवस १६ मई को मनाया जाता है, वहाँ इस खास दिन को 'हरि गुरु' कहते हैं।








कभी हँसाते  कभी रुलाते क्या क्या रूप  दिखाते रिश्ते ,
कभी फूल सा प्यार कभी ये काँटे  बन चुभ जाते रिश्ते ,
सम्बोधन  बेकार हो गये ,
बेमानी सब  प्यार हो गये ,
माली  ही जब बगिया लूटे ,
रिश्ते सब व्यापार हो गये ,
अहसासों की पंखुड़ियों पर पत्थर रोज चलाते  रिश्ते ,
कोई खोज रहा है सूरत ,
कोई खोज रहा है मूरत ,
किसको हम हमदर्द बतायें ,
सबको छलती यहाँ मुहब्बत ,
कुटियों की रौशनी छीनकर अपना महल सजाते रिश्ते ,
हर आँसू हम पी  सकते हैं ,
मरुस्थल में  जी सकते हैं ,
दुःख  में यदि जीना आ जाए ,
घावों को हम सी सकते हैं ,
पतझर में भी गुलिस्ताँ मुस्कराता ,
जब -जब प्यार लुटाते  रिश्ते ,
कभी हँसाते  कभी रुलाते क्या क्या रूप  दिखाते रिश्ते ,



रे रे चातक ! सावधान मनसा मित्र क्षणं श्रूयताम ,
अम्भोदाह   बहवो वसन्ति गगने सर्वैपि नैतादृशः ,
केचिद दृष्टिभिराद्रयान्ति वसुधाम ,गर्जन्ति केचिद वृथाह ,
यं  यं  पश्यशि  तस्य तस्य पुरतो माँ ब्रूहि दीनं वचः …………………
{संस्कृत फॉण्ट न  होने की वजह से अवग्रह की अशुद्धि है एवं हलन्त्य की भी क्षमा करें।  }
हे  मित्र चातक ! सावधान होकर  क्षण भर  के लिए मेरी बात को सुनो ,
आकाश में बहुत से बदल रहते हैं सभी एक प्रकार के नहीं हैं ,
कोई वर्षा से पृथ्वी को आद्र  कर देता है ,कोई व्यर्थ ही गरजता है ,
जिसे -जिसे देखिये ,सबके समक्ष दीन वचन मत कहिये ,
( हर जगह अभिव्यक्ति नहीं करनी चाहिए )
 टिप्पणी के लिए आप   सभी आदरणीयों का प्रभूत आभार !
अगर हम निष्पक्ष रूप से जातिगत भावना से ऊपर उठकर विचार करें तो तमाम ऐसी विसंगतियाँ  मिलेंगी। 
काबिले गौर है की अभी भी मुस्लिम भाई बाल विवाह करते हैं ,न केवल बाल विवाह बल्कि बचपन से जिसे भाई संबोधन दिया जाता रहा हो जैसे -मौसेरा भाई ,फुफेरा भाई ,चचेरा भाई और अन्य नाते-रिश्तेदार  इन सबसे निकाह करना पड़ता है , ग्रामीण स्थिति यह है की उन्हें बुर्के में ही निकलना है कहीं भी सामान्य स्थिति में वे कहीं  नहीं निकल सकती हैं , यह रही  बात शिक्षा का भी कुछ ऐसा ही हाल है या तो इन्हें विद्यालय भेजा  नहीं जाएगा या फिर ये केवल मदरसे तक सीमित होंगी , कुछेक परिवार ही ऐसे हैं जो अपने बच्चों को उच्च शिक्षा की तरफ अग्रसर होते देखना चाहते हैं और इसके लिए पूरा सहयोग देते हैं ,
अब मुख्य विषय तलाक़ , इस्लाम सात पत्नियाँ रखने की छूट  देता है। क्या यह उचित है ?
तलाक किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं होना चाहिए तलाके हसन ,तलाके एहसन और तलाके- उल- बिद्दत 
तलाक  ए  राजी ,तलाके  बेन ,कुला ,फ़स्ख  ये कहीं भी हों किसी भी रूप में हों हमेशा दुःख का ही कारण  बनते हैं , इन्सान  सारी  कायनात का सबसे  बुद्धिमान प्राणी है  अतः उसे प्रणय सम्बन्धों  से पूर्व ही इन सबपे विचार कर लेना चाहिए , विवाहेत्तर निर्णय जो किसी के जीवन के समाप्त होने का कारण बने न केवल इनसे बचना चाहिए अपितु समाज में भी इनके विरुद्ध जागरूकता लानी चाहिए…………………. 

आप सबकी प्रतिक्रिया का आकांक्षी हूँ !

आदरणीय हुकुम जी आपका मार्गदर्शन इस विषय पर विशेषतः अपेक्षित है ………… 

Tuesday, September 3, 2013

आज  महाकवि भवभूति विरचित उत्तररामचरितम  का एक प्रसंग याद आ गया जिसमे भगवान  राम और जनकनंदिनी सीता आपस में वार्तालाप कर रहे हैं , श्री राम कहते हैं कि  "हे सीते ! तुम्हारा क्या प्रिय नहीं है अगर कुछ अप्रिय है तो वह है विरह !" ,उसी समय गुप्तचर की ध्वनि सुनाई देती है -"देव  उपस्थितोस्मि !" अर्थात मैं उपस्थित हूँ , यहाँ श्री राम की बात समाप्त होती है विरह शब्द के साथ और दूत के वाक्य की शुरुवात होती है विरह शब्द के साथ , तदनन्तर  दूत श्री राम को सीताविषयक  लोकापवाद की सूचना देता  है और श्री राम जगज्जननी  सीता को वन छोड़ने का आदेश सुनाते हैं  निष्कर्ष यह कि विरह के उल्लेख के अनन्तर ही वे विरहव्यथित भी होते हैं  .……………………… यह बात संस्कृत और हिन्दी  साहित्य में 'पताकास्थानक '(dramatic situation or dramatic irony)  से अभिसूच्य  होती है , जब आप किसी बात का कथन करें और वह घटित हो जाय तो यह  'पताकास्थानक ' कहलाती है।
प्रस्तुतागंतुभावस्य वस्तुतोन्योक्ति सूचितम।
पताकास्थानकं तुल्यसंविधान विशेषणम।।

आङ्ग्ल भाषा में इसे  dramatic situation or dramatic irony कहते हैं।