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Sunday, June 29, 2014

इस संसार में मोह की शक्ति कितनी अपार है ? अग्नि की दाहशक्ति को न जानता हुआ पतंग दीपक में जा पड़े ,मछली अज्ञानवश कँटिये में लगे मांस को खा लेवे ,परन्तु हम (मनुष्य ) जानते हुए भी अनेक विपत्ति के फन्दों से व्याप्त विषयादि का परित्याग नही करते।  आखिर विधाता की सर्वोत्तम कृति होने के बावज़ूद हम क्यूँ चेतनाशून्य हो जाते हैं ? 

Friday, June 27, 2014

हर युग अपना नया विचार पैदा करता है जैसे गाँधी युग ,नेहरू युग ,जेपी युग,अन्ना युग आदि -आदि ;युग चला जाता है और विचार स्थापित हो जाता है ,आगे बढ़ता रहता है जब बोझिल होता है तो समाप्तप्राय भी होने लगता है। सबके विचारों के अपने तर्क हैं और आधार भी ;यहां धातव्य यह है कि कुछ विचार मिलते-जुलते और एक जैसे होते हैं जैसे देश की ज्वलंत समस्याओं पर निराकरण सम्बन्धी विचार। मेरे जीवनकाल में अन्ना आन्दोलन जैसा एकमत विचार नही दृष्टिगत हुआ ,आज भी हममे से कई सुधारों का ज्वालामुखी अन्दर  लिए बैठे हैं पर सबसे बड़ी समस्या इस देश में है शुरुवात की ,आगे चलने की ; यहीं से हम मात खा जाते हैं और छोड़ देते हैं सोचना ,जैसा चल रहा है चलने दो।  कभी बहुत वैचारिक ऊहापोह हुआ तो कुछ लिख दिया ,किसी से कह दिया अन्यथा मूकदर्शन ! आखिर इसका समाधान कब और कैसे होगा ?

Thursday, June 26, 2014

क्षणिक जीवन का जीवन्त उल्लेख कर आपने निःशब्द कर दिया ,एक- एक लाईन अनेकों अर्थ समेटे हुए है ,किस वाक्य की समीक्षा करूँ और किसे छोड़ूँ ? अनुकरणीय और बेहद उम्दा सन्देश देती काव्यसुधा ! सदैव प्रार्थना है कि  ऐसे ही चरणचिन्तकानुगामी के मानसमण्डल को अपने काव्यसिञ्चन से सिञ्चित कर अपनी काव्यात्मकता वीथी -वीथी में प्रतानित करें।
 शायद इसीलिये फ़कीर के विषय में कहते हैं कि ;
मन मारै तन बस करै साधै सकल शरीर ,
फ़िकरि फारि कफ़नी करै ताको नाम फ़क़ीर। 
तुझसे मैं तब भी पूछता था और आज भी ,
क्यों नहीं आया मुखौटे में जीना तुम्हे ?
क्यों अपनी शर्तों पे जीते रहे तुम ?
क्यों खुशी देकर गरल पीते रहे तुम ?
क्यों घर में ही विद्रोही बन गए ?
तुम गलत नहीं हो इस पर अड़ गए ,
सिद्धान्तों पे चलकर क्या पाया तुमने ?
लोगों ने तुम्हारा प्रयोग किया और चलते बने ,
क्यों नहीं सोचा कि तुम्हारी भी अपनी  ज़िन्दगी है ?
दूसरों के लिए जीना हमेशा सही नही होता ,
कभी स्वयं से स्नेह करके देखो ,
ज़िन्दगी कैसी लगती है ?
कैसे खुशनुमा हो जाता है ?
इस  धरती का सारा मंज़र ,
कब तक  बने रहोगे यायावर ?

अन्तिम पाँच पंक्तियाँ परमादरणीय जी की प्रेरणा से


भारत की बहुतायत जेलों में मानवाधिकार हनन की घटनाएँ सामान्य हैं,  कैदियों को अमानुषिक तरीके से दण्डित करना ,प्रताड़ित करना क्या न्याय व्यवस्था का अपमान नहीं है ? पुरुष कैदियों को छोड़ भी दें तो आप जानकार दंग रह जायेंगे कि महिला कैदियों का न सिर्फ़ बलात्कार होता है बल्कि वे गर्भवती भी हो जाती हैं और उन्हें गर्भ भी गिराना पड़ता है।आपराधिक प्रवृत्ति वालों का ठीक है परन्तु फर्जी तरीके से फंसाये गए लोगों की भी संख्या कम नही है।  और इस पर हमारे सामजिक संगठन ,न्यायालय ,सरकारें और मीडिया सब चुप्पी साधे रहते हैं।  ऐसा क्यों ?

Wednesday, June 25, 2014

प्रेम क्या है ? कैसे है ? क्यों है ? इसे शब्दों में नही बयाँ किया जा सकता क्योंकि प्रेम विचार नही अनुभूति है ,प्रेम को समझने की ज़रूरत नही है इसे जीने की आवश्यकता है और इसे जीने के लिए स्वयं को भूलना पड़ेगा ;आपके दुर्गुण जब तक अपूर्ण नही होंगे तब तक प्रेम कदापि पूर्ण नहीं हो सकता ।
सत्य ही है-----
जा घट प्रेम न सञ्चरे ,सो घट जान मसान।
जैसे खाल लुहार की साँस  लेतु बिन प्राण।
प्रेम बनिज नहीं कर सके, चढ़े न नाम की  गैल|
मानुष केरी खोलरी, ओड फिरे ज्यों बैल ||

Tuesday, June 17, 2014

कृतज्ञ राष्ट्र रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि पर सादर श्रद्धासुमन अर्पित करता है 
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।।
सुभद्रा कुमार चौहान की पंक्तियों द्वारा स्मरण 
(जन्म 19 नवंबर 1828 को वाराणसी- बचपन का नाम मणिकर्णिका था लेकिन प्यार से इन्हें मनु बुलाते थे। इनकी माता का नाम भागीरथी बाई तथा पिता का नाम मोरोपंत तांबे था। मोरोपंत एक मराठी थे और मराठा बाजीराव की सेवा में थे। 
लोग उन्हें प्यार से 'छबीली' बुलाते। १८४२ में इनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ हुआ, और ये झांसी की रानी बनीं। विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सन १८५१ में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया पर लेकिन चार महीने की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गई। 
तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया। 17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा-की-सराय में ब्रिटिश सेना से लड़ते-लड़ते रानी लक्ष्मीबाई शहीद हो गईं। 
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज;बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड;ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।
महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।



हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौजी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज;ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग;म से थीं बेज;ार,
उनके गहने कपड;े बिकते थे कलकत्ते के बाज;ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज;ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़;, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड;ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।
ज;ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेजों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

विजय मिली, पर अंग्रेजों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
समाज में हमारे भाव ,हमारा व्यवहार ,हमारे संस्कार  हमें परिभाषित करते हैं ; हमारा प्रत्येक भाव , विचार और कर्म हमें निर्मित करता है , इन सबकी समग्रता में ही हमारा होना न होना निर्धारित होता है। 
जिस प्रकार से कलाकार के हाथ अनगढ़ वस्तुओं में नयनाभिराम सुन्दरता भर देते हैं ,कुम्हार कच्ची मिट्टी को घड़े में परिभाषित होने योग्य बना देता है ,सुनार और लुहार भी कच्ची वस्तुओं से आभूषण ,हथियार बना देते हैं  उसी प्रकार से मनुष्य में मनुष्योचित गुणों का समावेश आवश्यक है।  अगर हमें शिखर छूना है तो ध्यान देना होगा कि हम अपने साथ पत्थर न बांधे ,जो हमें ऊपर नहीं नीचे ले जायेगा।
  हम अपने ही हाथों  से  स्वयं को रोज जकड़ते हैं जितना ही हम स्वयं को जकड़ते हैं उतना ही सत्य हमसे दूर हो जाता है। 

Monday, June 16, 2014

गौडपाद (300 ई.) तथा उनके अनुवर्ती आदि शंकराचार्य (700 ई.) ब्रह्म को प्रधान मानकर जीव और जगत्‌ को उससे अभिन्न मानते हैं। उनके अनुसार तत्त्व  को उत्पत्ति और विनाश से रहित होना चाहिए। नाशवान्‌ जगत तत्त्वशून्य है, जीव भी जैसा दिखाई देता है वैसा तत्त्वतः नहीं है। जाग्रत और स्वप्नावस्थाओं में जीव जगत्‌ में रहता है परंतु सुषुप्ति में जीव प्रपंच ज्ञानशून्य चेतनावस्था में रहता है। इससे सिद्ध होता है कि जीव का शुद्ध रूप सुषुप्ति जैसा होना चाहिए। सुषुप्ति अवस्था अनित्य है अत: इससे परे तुरीयावस्था को जीव का शुद्ध रूप माना जाता है। इस अवस्था में नश्वर जगत्‌ से कोई संबंध नहीं होता और जीव को पुन: नश्वर जगत्‌ में प्रवेश भी नहीं करना पड़ता। यह तुरीयावस्था अभ्यास से प्राप्त होती है। ब्रह्म-जीव-जगत्‌ में अभेद का ज्ञान उत्पन्न होने पर जगत्‌ जीव में तथा जीव ब्रह्म में लीन हो जाता है। तीनों में वास्तविक अभेद होने पर भी अज्ञान के कारण जीव जगत्‌ को अपने से पृथक्‌ समझता है। परंतु स्वप्नसंसार की तरह जाग्रत संसार भी जीव की कल्पना है। भेद इतना ही है कि स्वप्न व्यक्तिगत कल्पना का परिणाम है जबकि जाग्रत अनुभव-समष्टि-गत महाकल्पना का। स्वप्नजगत्‌ का ज्ञान होने पर दोनों में मिथ्यात्व सिद्ध है। परंतु बौद्धों की तरह वेदांत में जीव को जगत्‌ का अंग होने के कारण मिथ्या नहीं माना जाता। मिथ्यात्व का अनुभव करनेवाला जीव परम सत्य है, उसे मिथ्या मानने पर सभी ज्ञान को मिथ्या मानना होगा। परंतु जिस रूप में जीव संसार में व्यवहार करता है उसका वह रूप अवश्य मिथ्या है। जीव की तुरीयावस्था भेदज्ञान शून्य शुद्धावस्था है। ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का संबंध मिथ्या संबंध है। इनसे परे होकर जीव अपनी शुद्ध चेतनावस्था को प्राप्त होता है। इस अवस्था में भेद का लेश भी नहीं है क्योंकि भेद द्वैत में होता है। इसी अद्वैत अवस्था को ब्रह्म कहते हैं। तत्त्व  असीम होता है, यदि दूसरा तत्त्व भी हो तो पहले तत्त्व की सीमा हो जाएगी और सीमित हो जाने से वह तत्त्व बुद्धिगम्य होगा जिसमें ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान का भेद प्रतिभासित होने लगेगा। अनुभव साक्षी है कि सभी ज्ञेय वस्तुएँ नश्वर हैं। अत: यदि हम तत्त्व को अनश्वर मानते हैं तो हमें उसे अद्वय, अज्ञेय, शुद्ध चैतन्य मानना ही होगा। ऐसे तत्त्व को मानकर जगत्‌ की अनुभूयमान स्थिति का हमें विवर्तवाद के सहारे  व्याख्यान करना होगा। रस्सी में प्रतिभासित होनेवाले सर्प की तरह यह जगत्‌ न तो सत्‌ है, न असत्‌ है। सत्‌ होता तो इसका कभी नाश न होता, असत्‌ होता तो सुख, दु:ख का अनुभव न होता। अत: सत्‌ असत्‌ से विलक्षण अनिवर्चनीय अवस्था ही वास्तविक अवस्था हो सकती है। उपनिषदों में नेति कहकर इसी अज्ञातावस्था का प्रतिपादन किया गया है। अज्ञान भाव रूप है क्योंकि इससे वस्तु के अस्तित्व की उपलब्धि होती है, यह अभाव रूप है, क्योंकि इसका वास्तविक रूप कुछ भी नहीं है। इसी अज्ञान को जगत्‌ का कारण माना जाता है। अज्ञान का ब्रह्म के साथ क्या संबंध है, इसका सही उत्तर कठिन है परंतु ब्रह्म अपने शुद्ध निर्गुण रूप में अज्ञान विरहित है, किसी तरह वह भावाभाव विलक्षण अज्ञान से आवृत्त होकर सगुण ईश्वर कहलाने लगता है और इस तरह सृष्टिक्रम चालू हो जाता है। ईश्वर को अपने शुद्ध रूप का ज्ञान होता है परंतु जीव को अपने ब्रह्मरूप का ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना के द्वारा ब्रह्मीभूत होना पड़ता है। गुरु के मुख से 'तत्त्वमसि ' का उपदेश सुनकर जीव 'अहं ब्रह्मास्मि' का अनुभव करता है। उस अवस्था में संपूर्ण जगत्‌ को आत्ममय तथा अपने में सम्पूर्ण जगत्‌ को देखता है क्योंकि उस समय उसके (ब्रह्म) के अतिरिक्त कोई तत्त्व नहीं होता। इसी अवस्था को तुरीयावस्था या मोक्ष कहते हैं।
इस सृष्टि में शरीर का ही जन्म होता है ,और शरीर की ही मृत्यु होती है ,शरीर के जन्म लेने पर ही  'अमुक' का जन्म होता है  ,शरीर के छूटने पर ही 'अमुक' का निधन।  शरीर के जन्मते ही नाम के साथ तादात्म्य और शरीर के छूटते ही  तादात्म्य समाप्त।  वह जो हमारे भीतर है जिसे हम जी रहे हैं  , वह शरीर नही है ;  जीवन है।   जो इस मर्म से अनभिज्ञ है  जीवित  हुए भी मृत्यु में है ,और जो इस मर्म को जानता है वह मृत्यु में भी जीवन पा  जाता है। आप जिस भी व्यक्ति ,वस्तु ,स्थान ,जीव से रूबरू होते हैं आपका ही प्रतिबिम्ब होता है जो आपमें नहीं है उसे  आप कहीं नही पा सकते। आपको जो भी पाना है पहले अपने भीतर खोजिए फिर बाहर। 

Sunday, June 15, 2014

अर्थात कली से नाज़ुक कौन हो सकता है इस सृष्टि में ? और आकाशीय विद्युत से शक्तिशाली कौन ? परन्तु विद्युत एक दो बार में कली का कुछ नहीं बिगाड़ पाती उसके सौ बार चमकने के बाद भी कली में केवल छोटी सी धारी पैदा होती है।  इसके सूक्ष्म अन्वेषण के लिए कलियों के समूह पर अगर किसी नुकीली चीज से दबाव दिया जाय तो आप निश्चित नहीं कर सकते की कली के किस भाग में पहले छिद्र हुआ ? 
आपकी समीक्षा के लिए मुझे निर्गतनिखिलकल्मषत्व की स्थिति  लेकर ,शुद्ध चित्त ,बुद्धमुक्त होकर , स्थितिप्रज्ञ  बनकर मूल्याङ्कन करना होगा ,और जैसा आप जानते हैं साधारण मानव की  स्थिति में होने के कारण आप जैसे 'योगी' का मूल्याङ्कन करना मेरे लिए थोड़ा कठिन है फिर भी आदेश की अवपालना का प्रयास करूँगा !

Saturday, June 14, 2014

आत्मभाव    किसी विशेष वार्तालाप की प्रतिक्रिया  के परिणामस्वरूप 

"मुझे हमेशा अपने निर्णय पर संतोष होता है कि इतना पढ़ा-लिखा फिर भी प्राइवेट सेक्टर में हूँ ,स्वतन्त्र पत्रकार हूँ।  कम से कम ये स्थिति तो नही ही है कि  दूसरों की आज्ञा की अवपालना के लिए आजीविका को बचाने का संकट झेलना पड़े ,नेताओं के आगे -पीछे दौड़ना पड़े ,अधिकारियों से सम्पर्क साधने के लिए चक्कर काटने पड़ें ; और तो और उनकी चापलूसी कर अपनी नौकरी बचाते रहने का दंश झेलना पड़े।  जहाँ भी हूँ स्वतन्त्र हूँ ,स्वेच्छा से हूँ ,सही हूँ । अपनी मेहनत से कमाता हूँ और सम्मानजनक स्थिति में रहता हूँ,स्वयं से प्रेम कत्तई नहीं करता परन्तु अपने से ज्यादा विश्वास किसी पे नहीं करता। आईने में अपनी आँख से आँख मिला के कह सकता हूँ कि मैं  खुद्दार हूँ ,ख़ुदग़र्ज़  नहीं ! "
 विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषान्न चेतांसि त एव धीराः।  अर्थात् जो बातें विकार पैदा करने वाली हैं उनके होते हुए भी जिनके मन में विकार न पैदा हो वे धीर हैं , धीरज हैं। 
(कुमारसम्भवे कालिदासः)
      कृपाकांक्षी 
डॉ. धीरेन्द्र नाथ मिश्र 'धीरज'
रक्त सम्बन्धों और अत्यन्त परिपक्व सम्बन्धों  के  अतिरिक्त समस्त रिश्ते टूटने के लिए ही बनते हैं ,आप इनके पीछे जितना दौड़ते  हैं ,उतना ही ये आपसे दूर भागते हैं और आप इनसे जितना दूर जाने का प्रयास करते हैं उतना ही ये आपके नजदीक आते  हैं।  मेरा ऐसा मानना है की अगर रिश्तों में खटास की शुरुवात हो तो रिश्ते को  थोड़ा सा गैप देना चाहिए फिर भी अगर सुधार न हो तो एक ही चारा है …………………'दिल मिले न मिले हाथ मिलाते  रहिये'। 

Wednesday, June 11, 2014

कई मित्रों के अनुरोध पर अपार- काव्यसंसार का वर्णन। 

नियतिकृतनियमरहितां  ह्लादैकमयीमनन्यपरतन्त्राम्। 
नवरसरुचिरां निर्मितिमादधती  भारती कवेर्जयति।। १।। (काव्यप्रकाश-प्रथमोल्लासः  )

(पद्मत्वादिरूप असाधारण धर्म अथवा अदृष्ट या धर्माधर्मादिरूप ) नियति के द्वारा निर्धारित नियमों से रहित ,आनन्दमात्रस्वभावा ,कवि की प्रतिभा को  छोड़कर  अन्य किसी के अधीन न रहने वाली तथा (छः रसों के स्थान पर ) नौ रसों से मनोहारिणी काव्यसृष्टि की रचना करने वाली कवि की भारती (वाणी-सरस्वती ) सर्वोत्कर्षशालिनी है। 

ब्रह्मा की सृष्टि 'नियति' के सामर्थ्य से निश्चित स्वरूप वाली ,त्रिगुणात्मक होने के कारण ,सुख-दुःखमोहस्वभाव से युक्त ,परमाणु आदि रूप उपादान कारण तथा कर्मादिरूप सहकारिकारण के अधीन ,छः रसों से युक्त और उनसे केवल मनोहारिणी ही नहीं अपितु अरुचिकर भी इस प्रकार की ब्रह्मा की रचना अर्थात सृष्टि है।  कवि-भारती की सृष्टि तो इसके विपरीत नियति के नियमों से रहित ,हर प्रकार से ह्लादैकमयी,   (रसानुभूति देने वाली ),अनन्यपरतन्त्रा (यहाँ  कवि की अपनी स्वतन्त्रता होती है वह जैसे चाहे रचना करे ) और  नव रस रुचिरा है (विधाता की सृष्टि में छः रस होते हैं -मधुर ,अम्ल ,लवण ,कटु ,कषाय ,तिक्त।  और इनमें कुछ अरुचिकर भी होते हैं तद्विपरीत कवि की सृष्टि में नवरस होते हैं जिनमें श्रृंगार ,हास्य ,करुण ,रौद्र ,वीर ,भयानक ,वीभत्स ,अद्भुत और शान्त हैं।  कवि की सृष्टि में अरुचिकर कुछ भी नही होता  क्यूंकि जब पाठक करुण रस पढ़ता है तब भी उसे रसानुभूति होती है ,इसलिए कई अर्थों में कवि की सृष्टि विधाता की सृष्टि से श्रेष्ठ मानी गयी है ) इसलिए विजय-शालिनी  कवि की भारती को मेरा नमस्कार है।