"विश्वगुरू भारत की गुणगान कथा "
लक्ष्य विहीन जीवन जीने से, अच्छा तो मर जाना है ,
बार-बार की असफलता से, सफल लक्ष्य को पाना है ,
हम थके नहीं हम झुके नहीं ,अब हम तो बढ़ते जायेंगे ,
सर्वस्व न्यौछावर कर देंगे, पर विजय श्री को पायेंगे,
अपनी धरती पे लगा दाग, हम खुद ही इसे मिटायेंगे,
और देशभूमि को फिर से, सोने की चिड़ी बनायेंगे ,
सपनो का भारत विश्वविजय, भारत का गौरव बना रहे ,
हो विश्वगुरू फिर से भारत, यह लक्ष्य सदा ही अड़ा रहे ,
हो दिगदिगन्त तक हे भारत !, बस तेरी ही गुणगान कथा ,
सब कुछ सूना तेरे आगे, है अन्य किसी का मान वृथा ,
फिर से बन पाता स्वर्णचिड़ी , तो होता विश्वगुरू भारत ,
सारी दुनिया पर बुद्धिविजय ,जग में फिर से उठता भारत ,
है ज्ञानी और मनीषी से , जिस भारत का इतिहास भरा ,
ज्योतिषविद और अंकविद्या का, सागर भी है आज हरा ,
वो शूल्बसूत्र (geometry) हम ही लाये ,इस दुनिया के हर कोने में ,
पाणिनि का वैय्याकरण ज्ञान ,है अलख सुहागा सोने में ,
शत वैद्य चिकित्सक की विद्या से, भरा देश का वेद पुराण ,
हर शैल्य चिकित्सा की तो , भारत था जैसे अतुल खान ,
सब हार मानते थे जिससे ,वो रोग मिटाता था भारत ,
हर रोग बीमारी को छोडो ,अज्ञान मिटाता था भारत ,
थे दूर देश के राजनृपति, भारत के चरण कमल धोते ,
पर हाय आज का समय चक्र ,हम चले गये सब कुछ खोते ,
था भारत मेरा जगतगुरू ,थे शिल्पी और दुर्ग बड़े -बड़े ,
पर आज उसी भारत में ,हैं बचे- खुचे कुछ दुर्ग खड़े ,
रामसेतु ,मंदिर दक्षिण का,करता है यशगान सदा ,
है कला और कौशल्यसिद्धि में ,किससे पीछे भारत की अदा ,
वो दर्शन और साहित्य ज्ञान ,भारत में इनका हुआ जन्म ,
जग को सिखलाया इसी देश ने गणित और प्रत्येक मर्म ,
पर हाय समय की मार ,भारत भी आज मिटता सा है ,
दुनिया में होकर पीछे ,अरमानों में घटता सा है ,
जिस भारत ने थी सिखलाई ,दुनिया को प्यारी प्रेम रीति ,
उस भारत को ही मिलती है ,दुनिया से ओछी कूटनीति ,
है भारत की कोशिश , विकसित राष्ट्र बन जाने की ,
अपनी शक्ति को अखिल विश्व को फिर से दिखलाने की ,
बदला है नहीं पूरा भारत ,है बच्चे में अभी राम ,
सीता की प्रतिमा बालाएं ,हैं कोमल मन के धाम ,
भारत में नहीं बदला वो धर्म ,और कर्म का नित ही ध्यान ,
पर आज देश में पनप रहा है ,मनुज बीच अज्ञान ,
हे मनुज ! खोल ले आँख ,तू अपने भीतर झाँक ,
वरना ये तेरी कुटिल बुद्धि, कर देगी तुझको राख ,
फिर से अपना ले देश भूमि का धर्म आज ,
ये कर्म है इससे कभी न सकता तू अब भाग ,
दुनिया में दिखला दे सबको, ये देश तेरा था जगद्गुरू ,
हर देश हमारा अनुचर था ,तुम करो रीति फिर से ये शुरू ,
भारत को फिर से जगद्गुरु, बना ही दोगे कह दो !,
या तो अपने इस देहचर्म को, इसी समय तुम तज दो !,
है रीति सदा से भारत की, दुनिया में कोई भी रेर न हो ,
सब जियें औ शांति से जीने दें, कैसी भी कोई अन्धेर न हो ,
निष्ठा और सच्ची देशभक्ति, हर भारतीय की आदत हो ,
हर भारतीय अपने कर्मों में , भले छोड़ सब कुछ रत हो ,
हे भारत देश प्रणाम तुझे !,तू इस सृष्टि का जगद्गुरू ,
तेरे वंदन से मेरे देश ,होती है कविता सदा शुरू ,
तेरे माटी की धूलि सदा ,हम सरमाथे से लगाते हैं ,
वीर शहीद तेरी मिट्टी में , अमरधाम को पाते हैं,
तेरी रक्षा में रत होकर ,जिस देशभक्त के जाते प्राण ,
उस महावीर का नमन सदा ,करते हम उर से सम्मान ,
हम भारतीयों की इच्छा है ,बन जाए सपनों का भारत ,
चाहे ये जीवन जाए फिर , हम रहें सदा इस प्रण में रत ,
हे आर्यावर्त तुझे मेरा ,बारम्बार प्रणाम है ,
तेरी छाया में मेरी काया पले ,हर जन्म में ये अरमान हैं ,
है 'धीरज ' की इच्छा ये सदा,बलि जाऊं मैं इस मातृभूमि पर
मिल जाएगा मुझको अतुल सुख , गर जाएँ प्राण इस कर्मभूमि पर ………………।
प्रणेता - डॉ. धीरेन्द्र नाथ मिश्र 'धीरज '
copyright@DR.D.N.MISHRA
गहन चिंतन और उद्वेलित मन का परिणाम है यह रचना , आप सबकी प्रतिक्रिया एवं सुझाव सादर आमन्त्रित हैं !
लक्ष्य विहीन जीवन जीने से, अच्छा तो मर जाना है ,
बार-बार की असफलता से, सफल लक्ष्य को पाना है ,
हम थके नहीं हम झुके नहीं ,अब हम तो बढ़ते जायेंगे ,
सर्वस्व न्यौछावर कर देंगे, पर विजय श्री को पायेंगे,
अपनी धरती पे लगा दाग, हम खुद ही इसे मिटायेंगे,
और देशभूमि को फिर से, सोने की चिड़ी बनायेंगे ,
सपनो का भारत विश्वविजय, भारत का गौरव बना रहे ,
हो विश्वगुरू फिर से भारत, यह लक्ष्य सदा ही अड़ा रहे ,
हो दिगदिगन्त तक हे भारत !, बस तेरी ही गुणगान कथा ,
सब कुछ सूना तेरे आगे, है अन्य किसी का मान वृथा ,
फिर से बन पाता स्वर्णचिड़ी , तो होता विश्वगुरू भारत ,
सारी दुनिया पर बुद्धिविजय ,जग में फिर से उठता भारत ,
है ज्ञानी और मनीषी से , जिस भारत का इतिहास भरा ,
ज्योतिषविद और अंकविद्या का, सागर भी है आज हरा ,
वो शूल्बसूत्र (geometry) हम ही लाये ,इस दुनिया के हर कोने में ,
पाणिनि का वैय्याकरण ज्ञान ,है अलख सुहागा सोने में ,
शत वैद्य चिकित्सक की विद्या से, भरा देश का वेद पुराण ,
हर शैल्य चिकित्सा की तो , भारत था जैसे अतुल खान ,
सब हार मानते थे जिससे ,वो रोग मिटाता था भारत ,
हर रोग बीमारी को छोडो ,अज्ञान मिटाता था भारत ,
थे दूर देश के राजनृपति, भारत के चरण कमल धोते ,
पर हाय आज का समय चक्र ,हम चले गये सब कुछ खोते ,
था भारत मेरा जगतगुरू ,थे शिल्पी और दुर्ग बड़े -बड़े ,
पर आज उसी भारत में ,हैं बचे- खुचे कुछ दुर्ग खड़े ,
रामसेतु ,मंदिर दक्षिण का,करता है यशगान सदा ,
है कला और कौशल्यसिद्धि में ,किससे पीछे भारत की अदा ,
वो दर्शन और साहित्य ज्ञान ,भारत में इनका हुआ जन्म ,
जग को सिखलाया इसी देश ने गणित और प्रत्येक मर्म ,
पर हाय समय की मार ,भारत भी आज मिटता सा है ,
दुनिया में होकर पीछे ,अरमानों में घटता सा है ,
जिस भारत ने थी सिखलाई ,दुनिया को प्यारी प्रेम रीति ,
उस भारत को ही मिलती है ,दुनिया से ओछी कूटनीति ,
है भारत की कोशिश , विकसित राष्ट्र बन जाने की ,
अपनी शक्ति को अखिल विश्व को फिर से दिखलाने की ,
बदला है नहीं पूरा भारत ,है बच्चे में अभी राम ,
सीता की प्रतिमा बालाएं ,हैं कोमल मन के धाम ,
भारत में नहीं बदला वो धर्म ,और कर्म का नित ही ध्यान ,
पर आज देश में पनप रहा है ,मनुज बीच अज्ञान ,
हे मनुज ! खोल ले आँख ,तू अपने भीतर झाँक ,
वरना ये तेरी कुटिल बुद्धि, कर देगी तुझको राख ,
फिर से अपना ले देश भूमि का धर्म आज ,
ये कर्म है इससे कभी न सकता तू अब भाग ,
दुनिया में दिखला दे सबको, ये देश तेरा था जगद्गुरू ,
हर देश हमारा अनुचर था ,तुम करो रीति फिर से ये शुरू ,
भारत को फिर से जगद्गुरु, बना ही दोगे कह दो !,
या तो अपने इस देहचर्म को, इसी समय तुम तज दो !,
है रीति सदा से भारत की, दुनिया में कोई भी रेर न हो ,
सब जियें औ शांति से जीने दें, कैसी भी कोई अन्धेर न हो ,
निष्ठा और सच्ची देशभक्ति, हर भारतीय की आदत हो ,
हर भारतीय अपने कर्मों में , भले छोड़ सब कुछ रत हो ,
हे भारत देश प्रणाम तुझे !,तू इस सृष्टि का जगद्गुरू ,
तेरे वंदन से मेरे देश ,होती है कविता सदा शुरू ,
तेरे माटी की धूलि सदा ,हम सरमाथे से लगाते हैं ,
वीर शहीद तेरी मिट्टी में , अमरधाम को पाते हैं,
तेरी रक्षा में रत होकर ,जिस देशभक्त के जाते प्राण ,
उस महावीर का नमन सदा ,करते हम उर से सम्मान ,
हम भारतीयों की इच्छा है ,बन जाए सपनों का भारत ,
चाहे ये जीवन जाए फिर , हम रहें सदा इस प्रण में रत ,
हे आर्यावर्त तुझे मेरा ,बारम्बार प्रणाम है ,
तेरी छाया में मेरी काया पले ,हर जन्म में ये अरमान हैं ,
है 'धीरज ' की इच्छा ये सदा,बलि जाऊं मैं इस मातृभूमि पर
मिल जाएगा मुझको अतुल सुख , गर जाएँ प्राण इस कर्मभूमि पर ………………।
प्रणेता - डॉ. धीरेन्द्र नाथ मिश्र 'धीरज '
copyright@DR.D.N.MISHRA
गहन चिंतन और उद्वेलित मन का परिणाम है यह रचना , आप सबकी प्रतिक्रिया एवं सुझाव सादर आमन्त्रित हैं !
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