Pages

Saturday, May 12, 2012

;आदमी की मौत से तफरीह लेंगे जानवर ;
कौन जाने ये मकूला यूँ पुकारा जायेगा;
एक कुत्ता दुसरे कुत्ते पे दौड़ा और कहा;
भाग वर्ना आदमी की मौत मारा जाएगा.......
 
दुश्मनी का पेड़ गुलशन में लगाकर क्या करें;
अपने ही घर में दीवारें उठाकर क्या करें;
नींव में जिसके भरा जाए लहू इंसान का;
ऐसे मंदिर मस्जिदों को हम बनाकर क्या करें;;;;;;;
 
सफाई किसकी करनी चाहिए और क्या साफ़ करता है??
कि कचरा आँख में है और चश्मा साफ़ करता है;
चमक बढती है मेरी रोज खुद्दारी कि लहरों से;
मै वो पत्थर हूँ जिसको रोज दरिया साफ़ करता है..........
 
 
बक्श दे ऐ खुदा इस सफ़र के लिए;
खुशनुमा कुछ नज़ारे नज़र के लिए ;
ठण्ड में जो ठिठुरता है नंगे बदन ;
उसको चादर तो दे दो बसर के लिए;
कैफियत है गुनाहों की दिल में मगर ;
जैसे उल्लू हो एक खंडहर के लिए;
इस सियासत के वहशी मकडजाल जाल में ;
फँस गया आदमी उम्र भर के लिए;
ये न पूँछो कि क्या कुछ गँवाया गया;
इस उठे सर और सीधी कमर के लिए................
क्रांतिदूत...........

मै सोये हृदयों में जागृति कि ज्योति जगाने वाला हूँ;
मैं क्रांतिदूत हूँ मै पानी में आग लगाने वाला हूँ;
मैं पीड़ित कि आवाज! और पीड़क का प्रबल विरोधी हूँ;
मैं महायुद्ध के श्रीगणेश का शंख बजाने वाला हूँ;
 
मैं नहीं सुंदरी के घन केशों कि छाया का तलबगार ;
मैं नहीं कामिनी के नख-सिख सौंदर्य गान का गीतकार;
मैं महाकाल  के परिवर्तन संदेशों का हरकारा हूँ;
मैं जीर्ण व्यवस्था का भंजक ; मैं हूँ समता का सृजनहार ;
मैं विकृत विश्व को उसका असली रूप दिखाने वाला हूँ;
 मैं महायुद्ध............................................वाला हूँ;
 
जिनकी जिजीविषा क्षीण जिन्हें निज भुजबल पर विश्वास नहीं;
नव युग का सृजन न कर सकते रच सकते नव इतिहास नही;
जो संघर्षों से डरते हैं, अरि(शत्रु)से समझौता करते हैं;
जिनकी आँखों में निजोत्सर्ग का गरिमामय उल्लास नही;
उन नेताओं को नायकत्व का बोध कराने वाला हूँ;
मैं महायुद्ध........................................वाला हूँ;
 
जो भ्रान्ति पंक में फँस जाते वे कीर्ति सम्पदा खोते हैं;
जो चाह शांति की रखते हैं,वे बीज क्रांति के बोते हैं;
इतिहास सीख दे रहा हमें हर परिवर्तन की गाथा में;
बंदूकें होती कलम और अक्षर बारूदी होते हैं;
मैं रण गीता से क्षुब्ध पार्थ का क्लैब्य मिटाने वाला हूँ;
 मैं महायुद्ध.............................................वाला हूँ;
 
स्वप्नों  के उड़न खटोले पर तुम होना नही सवार सखे!
इस पार छोड़ जीवन रण को जाना कैसा उस पार सखे!
छल, छद्म ,कपट, विश्वासघात युग की नंगी सच्चाई है;
क्या आँखें बंद कर लेने से रुकता जग का व्यापार सखे!
मैं मोह-गुडाका लीन विश्व की  नींद भागने वाला हूँ;
मैं महायुद्ध के श्री गणेश का शंख बजाने वाला हूँ..........
गुजरात की भूकंप त्रासदी पर !  ( २६ जनवरी २००१ भुज  का भूकंप)



अभी तक तो सुबह का वो सूरज उगा था;और चिड़ियों ने थोडा सा दाना चुगा था;
सवेरे की रौनक जगी थी घरों में ;बजी थी अभी घंटियाँ मंदिरों में;
अभी बचपनों को था नीदों ने घेरा;अभी हो न पाया था पूरा सवेरा;
कि हलचल हुई और धड़कन थमी थी;कि साँसों कि रफ़्तार बिलकुल जमीं थी;
नही जान पाए कि क्या कुछ कहाँ है;कदम दर कदम मौत का कारवां है;

था गणतंत्र के गीत गाता वो बचपन ;कतारों में नारे लगाता वो बचपन;
जुलूसों कि मानिन्द बहती वो गंगा;कि लहरों में लेकर चली थी तिरंगा;
कि बस लड़खड़ाने लगा वो शहर था; कि इंसानियत पर खुदा का कहर था;
जमींदोज होती थी अट्टालिकाएं ;चतुर्दिक करुण दृश्य सबको रुलाएं; 
कि भूचाल में ढह रहा हर मकाँ है;कदम दर कदम..................

थी माँ पूंछती अपनी नन्ही सी जाँ को;वो मासूम था ढूंढता अपनी माँ को;
बहन पूंछती थी कहाँ मेरा भाई?कि भाई को भी आ रही थी रुलाई;
पिता ने कहीं खो दिया था दुलारा; दुलारा जो था उनकी आँखों का तारा;
दफ़न हो रहीं थी शवों की कतारें ;कराहें पुकारें रुदन चीत्कारें;
कि कब्रों में तब्दील हर आशियाँ है;कदम दर कदम....................

करुण आहटें थी मकानों के नीचे; या चिल्लाहटें थीं मकानों के नीचे;
थी आवाज केवल बचाओ बचाओ ;जरा हाथ थामो ये मलबा हटाओ!
चतुर्दिक मचा था जो कोहराम भीषण;वहां दिख रहा था सब अंजाम भीषण;
कि कुदरत ने कैसा कहर ला दिया था;कि गुजरात का ये शहर ढा दिया था ;
गवाही को तो सिर्फ वो आश्मां है;कदम दर कदम मौत........................

ये कमजोर बुनियाद के जो भवन हैं ;बिना आग के बिन धुंए के हवन हैं;
ये बहुमंजिलें खूबसूरत मकाँ हैं ;यहाँ जिंदगी रोज होती जवाँ है;
ओ निर्माण के बेरहम रहनुमाओं !न बुनियाद कमजोर घर की बनाओ!
चलो हम बनायें नई एक ईमारत;हो जिस पर टिकी  जिंदगी की इबारत;
ये भूकंप की त्रासदी की बयां है;कदम दर कदम मौत का कारवाँ है.......
है शुभाशंसा बहे मन में तुम्हारे ज्ञान धारा;
कारयित्री शेमुषी से हो चमत्कृत विश्व सारा;
आगमन शुभ हो तुम्हारा भारती के इस भवन में ;
हम सभी की ओर से है नवसुह्रित स्वागत तुम्हारा;

हम सभी ने जीवनोदधि में अलग गोता लगाया;
मिल गया कोई नया तो हो गया कोई पराया;
कष्टकर लम्बा सफ़र मंजिल अभी भी दूर थी पर;
इस जलधि की वीचियों ने हम सभी को ला मिलाया;
है खड़ा बाहें पसारे सामने फिर सिन्धु सारा;

जिंदगी की वीथियों में कुछ स्वजन तो छूटते हैं;
किन्तु उनकी याद के पल चैन मन का लूटते हैं;
और आँखों में अनागत के लिए सपने सुहाने ;
हम भले ही दूर होते किन्तु दिल तो टूटते हैं;
तुम मिले तो यूँ लगा ज्यों मिल गया परिवार सारा;
हम सभी की ओर से है नवसुह्रित स्वागत तुम्हारा............

पूज्यवर! मेरी साध थी की अपनी साहित्य साधना का उत्तमांश ही आपको अर्पण करूँ ;परन्तु मेरी यह साधना फलवती होने के पूर्व ही आप स्वर्गस्थ हो गये;आज अपनी रचना से आपकी पुण्य स्मृति का ही तर्पण कर रहा हूँ!!!!

दिनकर है जिसका अरुण  आस्य,
वसुधातल जिसके युगल चरण,
है नाभि गगन ,घन शीर्ष केश,
पावक ज्योतिर्मय दीर्घ नयन,
कमलिनी है जिसकी अस्थिपुन्ज,
आशाएं जिसकी श्रवण पात्र ,
है विटप देह की रोम राजि,
पलकें हैं जिसकी दिवस-रात,
माया जिसकी मुस्कान मधुर ,
मनचन्द्र,कंठ है महर्लोक ,
नाडियाँ आपगा,श्रोत शब्द ,
जिह्वा रस,मस्तक सत्यलोक,
संध्या जिसका परिधान भव्य,
स्वायम्भुव मनु है बुद्धि प्रखर,
महतत्त्व चित्त,अव्यक्त  ह्रदय,
यह मन जिसका आवास सुघर ,
जप रहा सतत् प्रतिदिन प्रतिपल,
पशुपति,शिव हैं जिसके सुनाम,
उस परम पूज्य ,इश्वर स्वरुप,
पिता श्री को है शतशः प्रणाम...