Pages

Tuesday, August 12, 2014

मात्र दो प्रज्ञाचक्षु युक्त व्यक्ति ही सदैव एक -दूसरे से अन्तर्संवाद स्थापित  करते हुए साथ रह सकते हैं ,इनमे एक नए तरह के प्रेम का उदय होता है जिसे आप मित्रता कह सकते हैं।  इस तथाकथित प्रेम में मित्रता अधिक गरिमामयी होती है ,इस प्रेम में घृणा ,संघर्ष ,लड़ना ,झगड़ना सब समाप्त हो जाता है ;अधिकार और आत्मनियंत्रण की कामना बलवती हो जाती है।  'मित्रता शुद्धतम प्रेम है।' इसमें जो कुछ  भी असार ,अर्थहीन होता है पीछे छूट जाता है केवल सारभूत और सुवास ही शेष बचता है।
              मित्रता ,प्रेम की ही सुवास है। स्मरण रहे जब तक आप अपने जीवनसाथी के मित्र नही बन जाते कभी भी शांति और समरसता का भान नही कर पाएंगे। 

Sunday, August 3, 2014

पता नही किस उद्वेग और आक्रोश से इस काव्य का सृजन हुआ है ये तो  नही बता सकता परन्तु इतना जरूर है कि  थोड़ा भी  सहृदय व्यक्ति इस काव्यकृति से अंतर्मन तक हिल जायेगा हम जैसे न जाने कितनों की आवाज इस काव्य में सुनाई दे रही है ,आप जिसे मिल गए उसे सोने /चांदी की कोई जरुरत ही नही फिर भी नतशीश नमन करता हूँ मैं मातृसत्ता को जिसने आपकी सहचरी बनकर आपके सभी निर्णयों में न केवल स्वीकारोक्ति दी वरन मनसा ,वाचा ,कर्मणा आपकी सहभागी बनी रहीं ,आप जैसे 'ज़मीर' कई युगों में एक पैदा होते हैं और जिसका जीवन ही स्वयं का नही है औरों के लिए है उसका जीना है तो जीना है इस संसार में।

मुसीबत की क्या बिसात आपके सामने आये ,
मुश्किल में इतना तेज ही नही की टिक पाये ,
मानता हूँ कि जो छपते  हैं वही बिकते हैं ज़माने में  ,
कलम भी सोचती है कि ज़मीर पे क्या लिख पाये ,
भारत माँ भी नाज़ करती है अपने ऐसे सपूत पर ,
वो भी चाहती है कि कहीं कोई तो ज़मीर आये।




....

Saturday, August 2, 2014

वो कहते हैं न परमादरणीय कि ,
हर चश्मे का अलग असर है ,
सबकी अपनी अलग नजर है ,
दृश्य न सुन्दर और असुन्दर,
यह तो दृष्टा पर निर्भर है ,

करता 'धीरज' कहाँ बसर है ,
किसको गुनता कहाँ खबर है ,
इस 'ज़मीर' का अनुचर बनकर ,
मिलती नित ही नयी डगर है ,

नाउम्मीदी कभी न आई ,
सीख सका न मैं चतुराई ,
शब्दसिंधु की महिमा भी तो ,
इस 'ज़मीर' ने ही सिखलाई ,

जिसको तकते स्वयं शिखर हैं ,
जिसका तन -मन ही ईश्वर है ,
स्नेह ,नम्रता भी कृतकृत्य है   ,
कभी शून्य पर आज शिखर है ,

सादर  समर्पित