स्त्री
स्त्री क्या है ?
क्यों है ?
कैसे है ?
क्यों नही होता स्त्री का अपना कोई घर ?
क्यों नही होता स्त्री का अपना वंशज ?
क्यों नही होती स्त्री अपनी खुद की मालिक ?
क्यों उसके उम्र के हर पड़ाव होते है औरों के अधीन ?
क्यों महीने के हरेक दिन वो मन्दिर नही जा सकती ?
क्यों सबको खिलाकर तृप्त किये बिना वो नही खा सकती ?
क्यों वो अपनी मर्जी से सो नही सकती ?
क्यों कभी -२ चाहकर भी वो रो नही सकती ?
क्यों चहारदीवारी की सीमायें केवल इसी के लिए बनी ?
क्यों हमेशा यही मिलती है लावारिश रक्त में सनी ?
क्यों सारे व्रत ,सारे उपवास इसी पर थोप दिए गए ?
क्यों सुख के सारे पल इससे छीनकर पुरुष को दिए गए ?
सारी उम्र ये मिथक रखने के बावजूद कि उसका पति उसका देवता है
एक पति परमेश्वर क्या ईश्वरत्व दिखाता है उसे ?
जब किसी के बाप दादा मरोड़ते है अपनी मूँछे बेटे के जन्म पर
तो क्यों भूल जाते हैं कि इन सबके पीछे सिर्फ तुम हो ?
जीवन की धधकती आग में निरन्तर जलती हो तुम
और अन्ततोगत्वा तुम्हारे जीवन की शाम हो जाती है
क्यों भूल जाते हैं लोग कि अपनी आधी उम्र तक
तुम्हे केवल तुम्हारे स्त्री होने का दंश भोगना पड़ता है
घर की इज्जत बचाने के लिए जो स्त्री अपना वजूद भूल जाती है
उसी स्त्री की इज्जत के साथ सड़कों पे खेलते है वहशी दरिन्दे
सबका दर्द सुने समझे और आत्मसात करे ,तसल्ली भी दे ,
लेकिन उसका दर्द सुनने ,समझने और तसल्ली देने कौन जाता है
जन्म से लेकर मरण तक कोई हमराह नही रहता
फिर भी सबकी राहों में फूल बिछाती है ये औरत
सभी रिश्तों को निभाते -निभाते एक दिन खुद ही निभ जाती है
चली जाती है उस अनन्त में जहाँ से कोई वापस नही आता
अपनी माँ ,बहन ,बेटियों ,दोस्तों के साथ हम ये कब तक होने देंगे ?
कब तक होने देंगे ये सब ? आखिर कब तक ?
प्रतिक्रिया एवं सुझाव का आकांक्षी
डॉ. धीरेन्द्र नाथ मिश्र 'धीरज'
स्वतन्त्र पत्रकार