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Thursday, July 31, 2014

परमादरणीय प्रोत्साहन की सदैव ऐसे ही आशा है आपसे ,
अकिञ्चन सा सदैव सीखने की प्रत्याशा है आपसे ,
मोमबत्तियों से बहुत आगे की हम सोच रखते है ,
आप सबके आशीष से ही साफल्य चखते हैं ,
जब तक  आगे बढ़ें तमन्ना है सबका साथ रहे ,
सर पर सदैव आप सबके आशीषों का हाथ रहे। 
सादर !

Monday, July 21, 2014

स्त्री
स्त्री क्या है ?
क्यों है ?
 कैसे है ?
क्यों नही होता स्त्री का अपना  कोई घर ?
क्यों नही होता स्त्री का अपना वंशज ?
क्यों नही होती स्त्री अपनी खुद की मालिक ?
क्यों उसके उम्र के हर पड़ाव होते है औरों के अधीन ?
क्यों महीने के हरेक दिन वो मन्दिर नही जा सकती ?
क्यों सबको खिलाकर तृप्त किये बिना वो नही खा सकती ?
क्यों वो अपनी मर्जी से सो नही सकती ?
क्यों कभी -२  चाहकर भी वो रो नही सकती ?
क्यों चहारदीवारी की सीमायें केवल इसी के लिए बनी ?
क्यों हमेशा यही मिलती है लावारिश रक्त में सनी ?
क्यों सारे व्रत ,सारे उपवास इसी पर थोप दिए गए ?
क्यों सुख के सारे पल इससे छीनकर पुरुष को दिए गए ?
सारी उम्र ये मिथक रखने के बावजूद कि उसका पति उसका देवता है  
एक पति परमेश्वर क्या ईश्वरत्व दिखाता है उसे ?
जब किसी के बाप दादा मरोड़ते है अपनी मूँछे बेटे के जन्म पर
तो क्यों भूल जाते हैं कि इन सबके पीछे सिर्फ तुम हो ?
जीवन की धधकती आग में निरन्तर जलती हो तुम
और अन्ततोगत्वा तुम्हारे जीवन की शाम हो जाती है
क्यों भूल जाते हैं लोग कि अपनी आधी उम्र तक
तुम्हे केवल तुम्हारे स्त्री होने का दंश भोगना पड़ता है
घर की इज्जत बचाने के लिए जो स्त्री अपना वजूद भूल जाती है
उसी स्त्री की इज्जत के साथ सड़कों पे खेलते है वहशी दरिन्दे
सबका दर्द सुने समझे और आत्मसात करे ,तसल्ली भी दे ,
लेकिन उसका दर्द सुनने ,समझने और तसल्ली देने कौन जाता है
जन्म से लेकर मरण तक कोई हमराह नही रहता
फिर भी सबकी राहों में फूल बिछाती है ये औरत
सभी रिश्तों को निभाते -निभाते एक दिन खुद ही निभ जाती है
चली जाती है उस अनन्त में जहाँ से कोई वापस नही आता
अपनी माँ ,बहन ,बेटियों ,दोस्तों के साथ हम ये कब तक होने देंगे ?
कब तक होने देंगे ये सब  ? आखिर कब तक ? 

प्रतिक्रिया एवं सुझाव का आकांक्षी

डॉ. धीरेन्द्र नाथ मिश्र 'धीरज'
स्वतन्त्र पत्रकार 
परमादरणीयद्वय को सादर प्रणाम ! क्षमा के विषय में यूँ तो बहुत कुछ लिखा जा चूका है शास्त्रों में जैसे -क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास  हो…मेरी समझ में क्षमा से विरक्ति और क्रोधादि समय -समय पर अपरिहार्य हो जाते हैं।  उदाहरण के लिए एक ऋषि  के पास मिलने के लिए उनके छोटे भाई गए जो खुद भी ऋषि  थे ,तत्समय अग्रज ऋषि कहीं गए हुए थे ;छोटे भाई को बड़ी जोर से भूख लगी थी उन्होंने देखा की बड़े भाई कि कुटिया आस -पास वृक्षों में फल पके हुए हैं उन्होंने एक आम तोडा और खाने लगे तभी उनके अग्रज वहां आ पहुंचे उन्होंने उनके हाँथ में आम देखा तो पूँछा छोटे भाई ने बता सारी बात बता दी।  अग्रज ऋषि ने कहा कि 'बिना पूछे किसी  की भी वस्तु लेना चोरी है अतः आप राजा  के पास जाओ और इसके लिए दण्ड माँगो।  छोटे ऋषि राजा के पास गए राजा उन्हें दण्डित करने को तैयार न हो रहे थे परन्तु उनके हठ के बाद वे मान गए।  उस समय चोरी का दण्ड था दोनों हाँथ काट देना निष्कर्षतः उनके दोनों हाँथ काट दिए गए वे फिर अपने अग्रज की कुटिया में आये।  बड़े ऋषि बहुत खुश हुए और उन्हें गले से लगा लिया ;फिर दोनों भाई संध्या वन्दन हेतु नदी स्नान को गए जहाँ स्नान के उपरान्त जब छोटे ऋषि ने अपने हाँथ अर्घ्य के लिए उठाये तो वे पूरे हो गए ;आश्चर्यचकित होकर उन्होंने बड़े भाई से इसका कारण पूँछा कि अगर मेरे हाँथ उगा ही देने थे तो आपने मुझे राजा के पास क्यों भेजा ? तो उन्होंने बताया कि चोरी का यथोचित दण्ड राजा के ही अधिकार क्षेत्र में होता है अतः मैंने तुम्हे वहाँ भेजा। अगर मैं तुम्हे क्षमा कर देता तो यह न्यायोचित नही होता।  इससे हमें यह सीख मिलती है कि जहाँ दण्ड आवश्यक हो वहां क्षमा से कार्य नही हो सकता।    

Friday, July 18, 2014

विनम्रता कभी भी किसी के आश्रय पर अवलम्बित नही होती ,हम तब भी निरहंकार और विनम्र हो सकते हैं जब कोई दूसरा उपस्थित न हो ;यदि हमें विनम्र और निरहंकार होने के लिए किसी दूसरे की आवश्यकता है तो यह विनम्रता नही निर्भरता है।  अतः स्वाभाविक और स्थायी विनम्रता के मालिक बनिये ,सदैव विनम्र रहने का प्रयास करिये।  

Sunday, July 13, 2014

आज रमई काका स्मृतिपटल पर आ गए ,आप सब भी आनन्द लें। 

हम गयन याक दिन लखनउवै, कक्कू संजोगु अइस परिगा
पहिलेहे पहिल हम सहरु दीख, सो कहूँ - कहूँ ध्वाखा होइगा

जब गएँ नुमाइस द्याखै हम, जंह कक्कू भारी रहै भीर
दुई तोला चारि रुपइया कै, हम बेसहा सोने कै जंजीर
लखि भईं घरैतिन गलगल बहु, मुल चारि दिनन मा रंग बदला
उन कहा कि पीतरि लै आयौ, हम कहा बड़ा ध्वाखा होइगा

म्वाछन का कीन्हें सफाचट्ट, मुंह पौडर औ सिर केस बड़े
तहमद पहिरे कम्बल ओढ़े, बाबू जी याकै रहैं खड़े
हम कहा मेम साहेब सलाम, उई बोले चुप बे डैमफूल
'मैं मेम नहीं हूँ साहेब हूँ ', हम कहा फिरिउ ध्वाखा होइगा

हम गयन अमीनाबादै जब, कुछ कपड़ा लेय बजाजा मा
माटी कै सुघर महरिया असि, जहं खड़ी रहै दरवाजा मा
समझा दूकान कै यह मलकिन सो भाव ताव पूछै लागेन
याकै बोले यह मूरति है, हम कहा बड़ा ध्वाखा होइगा 

धँसि गयन दुकानैं दीख जहाँ, मेहरेऊ याकै रहैं खड़ी
मुंहु पौडर पोते उजर - उजर, औ पहिरे सारी सुघर बड़ी
हम जाना मूरति माटी कै, सो सारी पर जब हाथ धरा
उइ झझकि भकुरि खउख्वाय उठीं, हम कहा फिरिव ध्वाखा होइगा

Saturday, July 12, 2014

आज गुरुपूर्णिमा के पावन सुअवसर पर समस्त गुरुजनों का मैं हार्दिक वन्दन ,अभिनन्दन और शत -शत नमन करता हूँ। माता -पिता के बाद जिनसे जीवन के तौर तरीकों को सीखा ऐसे समस्त गुरुओं का मैं नमन करता हूँ,  नाम लेकर मैं किसी की भी महत्ता कम नही कर सकता।  बड़े -छोटे ,जलचर ,नभचर ,स्थलचर जिनसे भी मैं कुछ सीख सका या सीखने की प्रक्रिया में हूँ सबका मैं हृदय से आभारी हूँ।  'मुखपुस्तक' दुनिया में भी समस्त आदरणीयों एवं कनिष्ठों का भी मैं शत-शत वंदन ,अभिनन्दन और नमन करता  हूँ।
गुरुपूर्णिमा की कोटिशः शुभकामनाएं