हमारी इच्छाएं व्यक्त हों पेड़ों की तरह ,
बरसात में जैसे वल्कल हो जाते हैं भारी और मोटे ,
जैसे पतझड़ में झरने लगते हैं पत्ते ,
जैसे फूल रंग जाते हैं बसन्त में ,
परिस्थितियां गुजरे हममे से ऋतुओं की तरह ,
हमें पौधे से पेड़ बनाते हुए ,
हरा हो -होकर लौटे हमारा पीलापन ,
जड़ें हमारी महसूस करें अपनी एक पत्ती का गिरना ,
एक -एक फूल का हंसना महसूस हो जाये।
न तरस के जियें हम ,न मरें अघा -अघा कर ,
रूढ़ियों से न हों स्थापित ,
विस्थापित न हों अनबरसे मेघों से ,
'बँटे समाज' की उंगलियों में थमा सकें एक लिपि ,
और लबार होने से बचा ले जाएं अपना यह अनूठा 'समय'.
बरसात में जैसे वल्कल हो जाते हैं भारी और मोटे ,
जैसे पतझड़ में झरने लगते हैं पत्ते ,
जैसे फूल रंग जाते हैं बसन्त में ,
परिस्थितियां गुजरे हममे से ऋतुओं की तरह ,
हमें पौधे से पेड़ बनाते हुए ,
हरा हो -होकर लौटे हमारा पीलापन ,
जड़ें हमारी महसूस करें अपनी एक पत्ती का गिरना ,
एक -एक फूल का हंसना महसूस हो जाये।
न तरस के जियें हम ,न मरें अघा -अघा कर ,
रूढ़ियों से न हों स्थापित ,
विस्थापित न हों अनबरसे मेघों से ,
'बँटे समाज' की उंगलियों में थमा सकें एक लिपि ,
और लबार होने से बचा ले जाएं अपना यह अनूठा 'समय'.
No comments:
Post a Comment