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Friday, September 3, 2010

kadam insaan ka rahe duniya me tharra hi jata hai

kadam insaan ka rahe duniya me tharra hi jata hai,
chale kitna hi koi bach k thokar kha hi jata hai,
najar ho kitni bhi parichit sangharshon ki duniya se
hujumekashmakash me aadmi ghabra hi jata hai,
khilafat apni duniya me samajhata hun mai bhi lekin
vo aaten hai to chehre pr tagaiur chha hi jata hai,
shikayat kyun ise kahte ho ye to fitarat hai insaan ki
musibat me khayale ase rafta aa hi jata hai,
samajhti hai ki murjha jayengi vo sham tak
lekin shahar hote hi kaliyon ko tabassum aa hi jata hai।

Thursday, February 4, 2010

PRERNA

छिड़ी है ताल बेसुर किन्तु स्वर पञ्चम नही आया ,
बहारों का अभी इस बाग़ में मौसम नही आया ,
मिले दिल के कई दरिया हमें निज दृष्टि के पथ मे,
दिलों से पर दिलों का अब तलक संगम नही आया ,
अरे मेरे खुदा मुझको अभी कुछ और आँसू दे,
भरोसा तोड़ दे मेरा अभी वो गम नही आया ,
खड़ा हूँ तान कर सीना सियासत की खिलाफत में ,
भले ही साथ देने को कोई हमदम नही आया,
मैं हूँ सूरज अकेला किन्तु मेरी रोशनी ढँक ले ,
अभी संसार के बादल में इतना दम नही आया,
भले हूँ आदमी छोटा मगर इतना बता दूं मैं ,
की जज्बा मेरे दिल मे भी किसी से कम नही आया ........
BY D.N.MISHRA 'SENIOR JOURNLIST '..................

Friday, January 15, 2010

कदम इंसान का राहे दुनिया में थर्रा ही जाता है ,
चले कितना ही कोई बच के ठोकर खा ही जाता है ,
नजर हो कितनी भी परिचित संघर्षों की दुनिया से
हुजूमेकश्मकाश में आदमी घबरा ही जाता है ,
खिलाफत अपनी दुनिया में समझता हूँ मै भी लेकिन
वो आतें है तो चेहरे पर तगैउर छा ही जाता है ,
शिकायत क्यूँ इसे कहते हो ये तो फितरत है इंसान की
मुसीबत में खयाले एशे रफ्ता आ ही जाता है ,
समझती है की मुरझा जाएँगी वो शाम तक लेकिन
शहर होते ही कलियों को तबस्सुम आ ही जाता है ।

Wednesday, January 13, 2010

कैसे मैं प्रतिदान न मांगूं ..........

कैसे मैं प्रतिदान न मांगू ?
मैंने हृन्मंदिर मैं तेरी मंजुळ मानस मूर्ति बिठाई,
फिर भी मेरे प्रेम मंत्र क्यों दिए न निष्टुर तुझे सुनाई ,
जिसने खुद को होम किया उस महा यज्ञ की आन न मांगू?
कैसे मैं प्रतिदान न मांगू?
मैं तेरे सानिध्य लोभ में अपनी खुशिया लूट गया हूँ ,
प्रीति पंथ की ओ प्रवंच्के तुझसे जुड़कर टूट गया हूँ ,
मैं अगणित रातें रोया हूँ कैसे सुखद विहान न मांगू ,
कैसे मैं प्रतिदान न मांगू ?
हृतंत्री जुड़ने से दिखने वाले चित्र समक्ष न होंगे ,
मुझे विदित है मेरे रोते नेत्र तुझे प्रत्यक्ष न होंगे ,
फिर गीतोदित व्यथा हेतु से क्यूँ निज्द्शानुमान न मांगू,
कैसे मै प्रतिदान न मांगू?
मैं दिल से रोता हूँ फिर भी होंठों से गया करता हूँ,
विश्वमन्च पर अभिनय करके खुद को बहलाया करता हूँ,
कब तक झूँठे स्वांग भरूँ मैं क्यूँ अपनी पहचान न मांगू ,
कैसे मैं प्रतिदान न मांगू ?
जीवन की इस मरुस्थली में मन की प्यास बुझा न सका मैं ,
म्रिग्त्रिश्नाओं में भटका पर प्रेम वारि को पा न सका मैं ,
इस भटकन का और पिपासा का क्यों पर्यवसान न मांगू ?
कैसे मैं प्रतिदान न मांगू ?