कदम इंसान का राहे दुनिया में थर्रा ही जाता है ,
चले कितना ही कोई बच के ठोकर खा ही जाता है ,
नजर हो कितनी भी परिचित संघर्षों की दुनिया से
हुजूमेकश्मकाश में आदमी घबरा ही जाता है ,
खिलाफत अपनी दुनिया में समझता हूँ मै भी लेकिन
वो आतें है तो चेहरे पर तगैउर छा ही जाता है ,
शिकायत क्यूँ इसे कहते हो ये तो फितरत है इंसान की
मुसीबत में खयाले एशे रफ्ता आ ही जाता है ,
समझती है की मुरझा जाएँगी वो शाम तक लेकिन
शहर होते ही कलियों को तबस्सुम आ ही जाता है ।
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