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Saturday, February 7, 2015

रमण महर्षि अपना शरीर छोड़ रहे थे तभी उनके एक शिष्य ने रोना चीखना शुरू कर दिया ,रमण ने अपने नेत्र खोले और कहा , "क्या कारण है? तुम क्यों रो रहे हो ?" शिष्य ने कहा ,"भगवन् ! आप हमें छोड़कर जा रहे हैं यह असह्य  है। "  उस समय यद्यपि महर्षि रमण गले के कैंसर से पीड़ित थे और अत्यन्त पीड़ा का अनुभव कर रहे थे ,उनके लिए कुछ भी बोलना दुष्कर था फिर भी वह हँसे उन्होंने कहा ,"मैं कहाँ जा सकता हूँ ? मैं यहां उतना ही अधिक बना रहूँगा जितना कि अभी हूँ। तुम्हीं बताओ मुझे इस स्थान में कोई जगह ऐसी है जहाँ जाना हो ,यहाँ से कहीं भी तो नही जाना है।  मैं कैसे मर सकता हूँ ? जो मर सकता था (अहंकार ) वह पहले ही चला गया है।  यदि तुमने वास्तव में अपने हृदय में मुझे उतना स्थान दिया है तो हमेशा मैं पहले जितना ही बना रहूँगा। " चेतन कभी नही मरता …………… कभी भी नही …………… 

Friday, February 6, 2015

समुद्र की कभी मृत्यु नही होती ,केवल उठती-गिरती शोर मचाती लहरें आती हैं और चली जाती हैं।  एक बार भी लहर अगर ये सोच ले कि वह सागर से पृथक है तो उसे अतीव व्यग्रता होगी कि मृत्यु आ रही है ,वह आ रही है और रास्ते में है।  परन्तु जब वह यह जान ले कि मैं सागर से पृथक नही हूँ ,मै कैसे मर सकती हूँ ?  मरने के लिए मुझे पृथक होना पड़ेगा।  यदि मैं सागर के साथ हो जाऊं फिर मैं लहर जैसा रहूँ या नही क्या फर्क पड़ता है क्यूंकि जो मेरे अन्दर है वह भी तो सागर ही है और इसका अस्तित्व मेरे न रहने पर भी रहेगा।  ठीक यहीं स्थिति मृत्यु की है जो हमें हमारे अस्तित्व के दर्शन कराती है।