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Friday, January 15, 2010

कदम इंसान का राहे दुनिया में थर्रा ही जाता है ,
चले कितना ही कोई बच के ठोकर खा ही जाता है ,
नजर हो कितनी भी परिचित संघर्षों की दुनिया से
हुजूमेकश्मकाश में आदमी घबरा ही जाता है ,
खिलाफत अपनी दुनिया में समझता हूँ मै भी लेकिन
वो आतें है तो चेहरे पर तगैउर छा ही जाता है ,
शिकायत क्यूँ इसे कहते हो ये तो फितरत है इंसान की
मुसीबत में खयाले एशे रफ्ता आ ही जाता है ,
समझती है की मुरझा जाएँगी वो शाम तक लेकिन
शहर होते ही कलियों को तबस्सुम आ ही जाता है ।

Wednesday, January 13, 2010

कैसे मैं प्रतिदान न मांगूं ..........

कैसे मैं प्रतिदान न मांगू ?
मैंने हृन्मंदिर मैं तेरी मंजुळ मानस मूर्ति बिठाई,
फिर भी मेरे प्रेम मंत्र क्यों दिए न निष्टुर तुझे सुनाई ,
जिसने खुद को होम किया उस महा यज्ञ की आन न मांगू?
कैसे मैं प्रतिदान न मांगू?
मैं तेरे सानिध्य लोभ में अपनी खुशिया लूट गया हूँ ,
प्रीति पंथ की ओ प्रवंच्के तुझसे जुड़कर टूट गया हूँ ,
मैं अगणित रातें रोया हूँ कैसे सुखद विहान न मांगू ,
कैसे मैं प्रतिदान न मांगू ?
हृतंत्री जुड़ने से दिखने वाले चित्र समक्ष न होंगे ,
मुझे विदित है मेरे रोते नेत्र तुझे प्रत्यक्ष न होंगे ,
फिर गीतोदित व्यथा हेतु से क्यूँ निज्द्शानुमान न मांगू,
कैसे मै प्रतिदान न मांगू?
मैं दिल से रोता हूँ फिर भी होंठों से गया करता हूँ,
विश्वमन्च पर अभिनय करके खुद को बहलाया करता हूँ,
कब तक झूँठे स्वांग भरूँ मैं क्यूँ अपनी पहचान न मांगू ,
कैसे मैं प्रतिदान न मांगू ?
जीवन की इस मरुस्थली में मन की प्यास बुझा न सका मैं ,
म्रिग्त्रिश्नाओं में भटका पर प्रेम वारि को पा न सका मैं ,
इस भटकन का और पिपासा का क्यों पर्यवसान न मांगू ?
कैसे मैं प्रतिदान न मांगू ?