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Sunday, August 23, 2009

साँस लो या खुश रहो !

कसम उस मौत की उठती जवानी में जो आती है,
नई दुल्हन को विधवा माँ को जो पागल बनती है,
जहाँ से झुटपुटे के वक्त एक ताबूत निकला हो ,
कसम उस रात की पहले पहल उस घर में आती है,
अजीजों की निगाहें ढूंढती है मरने वाले को,
कसम उस सुबह की जो गम का ये मंजर दिखाती है ,
कसम उन आंसुओं की माँ की आंखों से जो बहते हैं,
जिगर थामे हुए जब लाश पर बेटे की आती है,
कसम उस बेबसी की अपने शौहर के जनाजे पर ,
कलेगा थाम कर जब ताज़ा दुल्हन सर झुकाती है,
नजर पड़ते ही इक जीमर्त्बा मेहमान के चेहरे पर,
कसम उस शर्म की मुफलिस की आंखों में जो आती है,
की ये दुनिया सरासर ख्वाबे और ख्वाबे परीशां है,
खुशी आती नही सीने में जब तक साँस आती है,...............डी.एन.मिश्रा "धीरज "

Saturday, March 21, 2009

deene aadmeeyat


आदमी को आदमी का दर्द न हो कैसे मुमकिन है, आदमी आदमी का हमदर्द न हो कैसे मुमकिन है, ये जो बैरभाव का है सिलसिला इसके पीछे कोई बेदर्द न हो, कैसे मुमकिन है? सिरफिरों का दिमागी फितूर है,नफरत , आदमी की दवा आदमी न हो कैसे मुमकिन है?
धीरेन्द्र नाथ मिश्रा "धीरज" ,वरिष्ठ पत्रकार